खुसरो का साहित्य संवेदना एवं शिल्प दोनों स्तरों पर भारत की सामासिक संस्कृति का पोषक है। चर्चा कीजिये।
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• खुसरो के साहित्य में संवेदना पक्ष में भारतीय सामासिक संस्कृति
• शिल्प पक्ष में भारतीय सामासिक संस्कृति
• निष्कर्ष
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अमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी और उर्दू के पहले कवि तो माने ही जाते हैं। उनकी रचनाएँ न केवल संवेदना बल्कि शिल्प के स्तर पर भी भारतीय सामाजिक संस्कृति की द्योतक है। इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
संवेदना पक्ष में भारतीय सामासिक संस्कृति:
- गुरु का महत्व-
- प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन ओलिया अमीर खुसरो के गुरु थे। गुरु का उनके जीवन पर विशेष प्रभाव था। गुरु की मृत्यु के पश्चात वह लिखते हैं-
“गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस!
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस!!”
गुरु की यह महत्ता भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से विद्यमान रही है, जिसका प्रमाण हमें अलग-अलग समय के ग्रंथों से मिलता ही है।
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- धार्मिक एवं बाह्य आडंबरों पर चोट-
- खुसरो की सामाजिक चेतना उनके साहित्य में दिखती हैं। जिस प्रकार सिद्ध-नाथ एवं बाद में भक्तिकालीन कवियों ने धार्मिक आडंबरों पर प्रहार किया था उसी प्रकार खुसरो भी पाखंडी चरित्र का पर्दाफाश करते हुए लिखते हैं-
“ उज्जवल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान
देखन में तो साधु है, निपट पाप की खान”
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- सौंदर्य एवं प्रेम के कवि-
- अमीर खुसरो की कविताएँ सौंदर्य एवं प्रेम की कविताएँ हैं। उन्होंने भारतीय आध्यात्म से प्रेम व सौन्दर्य का विकास किया। उदाहरण के तौर पर-
“खुसरो दरिया प्रेम की उलटी वाकी धार!
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार!!”
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- नारी चेतना/ लोक जीवन काव्य-
- भारतीय समाज में प्रयुक्त होने वाले गंवई शब्द जैसे- कुम्हार, चौपाई, पलंग, हांडी, चाक इत्यादि उनकी रचनाओं में दिखते हैं। साथ ही यहाँ की लौकिक परंपराएँ भी उनकी कलम का विषय बनती हैं। जैसे बेटी के विवाह के पश्चात उसकी विदाई का हृदय स्पर्शी विवरण-
“काहे को बियाहे विदेश, सुन बाबुल मोरे.. .”
शिल्प पक्ष में भारतीय संस्कृति की झलक:
- भाषिक समन्वय-
- खुसरो एक तरफ ठेठ ब्रजभाषा के साथ शुरुआती खड़ी बोली का मिश्रण करते हैं तो दूसरी तरफ फारसी के साथ हिंदी का मिश्रण कर उर्दू जैसे भाषा को जन्म देते हैं, जो भारतीय सामाजिक संस्कृति का अनन्य उदाहरण है। भाषा के स्तर पर कुछ अद्भुत प्रयोग में उन्होंने शुद्ध फारसी एवं शुद्ध ब्रजभाषा को एक ही कविता में पिरो दिया है। जैसे-
“जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल,
दुराय नैना बनाय बतियाँ…"
- छंद वैविध्य-
- खुसरों के साहित्य में छंद वैविध्यता की प्रधानता है। उन्होंने दोहे, सुखने, पहेलियाँ, मुकरियाँ, ढकोसले इत्यादि सब में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। इसी तरह हम अन्य आदिकालीन साहित्य देखें तो ‘पृथ्वीराज रासों’ कई प्रकार के छंद उपयुक्त हुए हैं, सिद्ध एवं नाथों में छंद एवं लय की एक समृद्ध परंपरा रही है।
न सिर्फ साहित्य रचना बल्कि संगीत में भी खुसरों ने अरबी एवं हिंदुस्तानी संस्कृति को एक ही छत के नीचे ला दिया। उदाहरण के तौर पर भारतीय संस्कृति का वाद्य यंत्र वीणा एवं अरबी के तंबूरा को मिलाकर उन्होंने सितार का आविष्कार किया। अतः हम कह सकते हैं कि अमीर खुसरो सही मायने में भारतीय सामासिक संस्कृति के वाहक हैं।