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प्रश्न :
‘सिद्ध एवं नाथ साहित्य ने हिन्दी साहित्य को न केवल संवेदना के स्तर पर बल्कि शिल्प के स्तर पर भी प्रभावित किया है।’ व्याख्या कीजिये।
10 Jun, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• हिन्दी साहित्य में संवेदना के स्तर पर सिद्ध एवं नाथ साहित्य का योगदान
• हिन्दी साहित्य में शिल्प के स्तर पर सिद्ध एवं नाथ साहित्य का योगदान
• निष्कर्ष
सिद्ध एवं नाथ साहित्य आदिकालीन हिन्दी साहित्य का एक प्रमुख भाग है। हालाँकि इस बात पर विद्वानों में पर्याप्त विवाद है कि सिद्ध एवं नाथ साहित्य हिन्दी साहित्य में शामिल हैं या नहीं। आचार्य शुक्ल ने इन्हें सांप्रदायिक साहित्य कह कर हिन्दी साहित्य क्षेत्र से बहार रखा है जबकि साहित्य के संदर्भ में यह देखना चाहिये कि वह संवेदना एवं शिल्प के स्तर योगदान दे रहा है या नहीं। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो सिद्ध एवं नाथ साहित्य का हिन्दी साहित्य के संवेदना एवं शिल्प के क्षेत्र में व्यापक योगदान है:-
संवेदना के स्तर पर:
- सिद्ध एवं नाथ साहित्य में गुरु को विशेष महत्त्व दिया गया है, गुरु की ऐसी ही महत्ता आगे चलकर भक्तिकाल में देखने को मिलता है, जहाँ कबीर कहते हैं-
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पांय”
- सिद्धों एवं नाथों दोनों ने ही वैदिक परम्पराओं एवं बाह्य आडंबरों का विरोध किया है जैसे-
“आगम वेअ पुणेही पंडिअ माण वहन्ति…”
इसी प्रकार कबीर कहते है:
“पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़…”
- दोनों प्रकार के साहित्य में साधनात्मक रहस्यवाद की प्रधानता है एवं इसके लिये एक अलग प्रकार की भाषा जिसे पंडित महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने ‘संधा भाषा’ कहा है, उपयोग में लाया है। उदाहरण के तौर पर-
“का आ तरुवर पंच बिडाल
चंचल चीये पैठो काल”- स्त्री के प्रति जहाँ सिद्ध परंपरा में भोगवादी दृष्टिकोण है वहीं नाथों एवं भक्तिकालीन संत परंपरा में स्त्री का साथ त्याज्य है।
शिल्पगत योगदान
- सिद्ध एवं नाथ साहित्य में अर्द्ध-मागधी अपभ्रंश का प्रयोग हुआ है जिससे आगे चलकर पूर्वी हिन्दी भाषा का विकास हुआ।
- सिद्ध एवं नाथ साहित्य में आंतरिक अनुभूतियों को व्यक्त करने हेतु जिस संधा भाषा का प्रयोग हुआ है आगे चलकर भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी संत काव्यधारा में परिलक्षित हुई है।
- हिन्दी साहित्य की छंद परंपरा सिद्ध एवं नाथ साहित्य के कारण ही समृद्ध हुई है।इनके साहित्य में छंद के विभिन्न रूप प्रयुक्त हुए हैं, जैसे- दोहा, सोरठा, रोला इत्यादि। साथ ही, मुक्तक काव्यरूप की परंपरा, जैसे- चर्यापद, भी इन्हीं से लिया गया है। उलटबांसियों का प्रयोग भी सिद्ध एवं नाथ परंपरा की दें है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि जिन छंद व लय को सिद्धों एवं नाथों ने संघर्ष से प्राप्त किया वह हिन्दी भाषा में सहज ही उपलब्ध हो सकीं। सिद्ध-नाथ की सहित्यिक परम्परा से अलग हटकर हम हिन्दी की विकास की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
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