मूर्तिकला की दृष्टि से भी गुप्त काल में पर्याप्त सृजन हुआ। टिप्पणी करें।
09 Jun, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाज
हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क • निष्कर्ष |
मथुरा, सारनाथ तथा पाटलिपुत्र गुप्तकालीन मूर्तिकला के उत्कृष्ट आकारमूलक अभिव्यक्ति के मुख्य केंद्र थे। इस समय की मूर्तिकला संयत तथा नैतिक है। कुषाणकालीन मूर्तियों में सौंदर्य का जो रूप था उसके विपरीत गुप्तकाल की मूर्तिकला में नग्नता नहीं है। बल्कि आ़द्योपोत आध्यात्मिकता, भद्रता एवं शालीनता दृष्टिगोचर होती है।
इस समय बनी कुछ मूर्तियाँ भी गांधार शैली के प्रभाव से बिल्कुल अछूती हैं। कुषाण मूर्तियों के विपरीत इनका प्रभामंडल अलंकृत है। सारनाथ की बुद्धमूर्ति पद्मासन मुद्रा में है। मथुरा में दो खड़ी मुद्रा की मूर्ति है। सुल्तानगंज की ताम्रमूर्ति, साढ़े सात फुट ऊँची है।
हिंदुओं ने मूर्तियों को देवी-देवताओं का प्रतीक माना उनका प्रतिनिधि नहीं। इस प्रकार इस काल में देवता तो मानवीय आकार ले लिया उनमें कई भुजाओं का निर्माण किया गया तथा प्रत्येक भुजा को किसी-न-किसी देवता का प्रतीक मान लिया गया। इनका निर्माण मथुरा शैली के प्रतिमानों के आधार पर हुआ। विष्णु की प्रसिद्ध प्रतिमा देवगढ़ का दशान्तर मंदिर- ये अंततशायी रूप में हैं। अवतारों में अनेक वराह की मूर्तियाँ बनाई गई। शैव संप्रदाय अधिकतर लिंग पूजा तक सीमित था और इसमें शिल्प की अधिक संभावनाएँ नहीं थी। फिर भी कत्यदंडा से प्राप्त चतुर्मुखी तथा खोह से प्राप्त एक मुखी शिवलिंग के साथ ही भूमरा के गर्भगृह में स्थापित एकमुखी शिवलिंग उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त इस काल में मृणमूर्तियों का प्राप्ति उत्तर भारत की विशेषता रही। इनमें से बहुत सी साँचे में ढली हुई है और इसलिये लगता है कि इनका निर्माण बड़े पैमाने पर होता था। इनमें से कुछ मूर्तियों का उपयोग धार्मिक कृतियों के लिये होता था- पहाड़पुर से कृष्ण की लीालाओं से संबंधित मृणमूर्तियाँ प्राप्त हुई है। अहिक्षन से गंगा-यमुना की एवं श्रावस्ती से धराधारी शिव की मृणमूर्तियों मिली है, परंतु अधिकांश मूर्तियों का धर्म से कोई संबंध नहीं था और उनका उपयोग खिलौने तथा सजावट की सामग्री के रूप में होता था।