हाल ही में ‘वाटर पॉलिसी’ नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित एक शोध में पर्वतीय राज्यों में बढ़ते जल संकट पर चिंता व्यक्त की गई है। पर्वतीय राज्यों में जल संकट के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालते हुए इस समस्या के समाधान के लिये भारत सरकार द्वारा की गई पहलों की चर्चा करें।
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका।
• पर्वतीय राज्यों में जल संकट के प्रमुख कारण क्या हैं?
• समस्या के समाधान के लिये भारत सरकार द्वारा की गयी पहल क्या है?
• निष्कर्ष।
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हाल ही में ‘वाटर पॉलिसी’ नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित एक शोध में पर्वतीय राज्यों में बढ़ते पानी के संकट पर चिंता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट के अनुसार, मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिमपॉन्ग और दार्जिलिंग जैसे शहर जलसंकट से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, संरक्षण का अभाव,अनियोजित शहरीकरण और जनसंख्या का दबाव इन क्षेत्रों में जल संकट के प्रमुख कारण हैं।
उल्लेखनीय है कि नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्वतीय राज्यों के 50% प्राकृतिक झरने सूख रहे हैं। जो प्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र के अन्य जल स्रोतों और नदियों के सतत् प्रवाह को प्रभावित करते हैं। उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले में जहाँ एक समय 500 से अधिक प्रकृतिक झरने हुआ करते थे परंतु वर्तमान में इस ज़िले में मात्र 57 झरने ही शेष बचे हुए हैं।
पर्वतीय राज्यों में जल संकट के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
- इन क्षेत्रों में अनियोजित शहरीकरण से एक तरफ जहाँ प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है , वहीं औद्योगीकरण, कृषि और विकास की अन्य गतिविधियों से वनों की कटाई और भूमि के प्रयोग में परिवर्तनों से झरनों के प्राकृतिक मार्ग प्रभावित हुए हैं तथा जल संचयन के प्राकृतिक स्रोतों में कमी हुई है, जो पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण में आए बदलाव ने संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों के संकट को और बढ़ा दिया है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पिछले 60 वर्षों में पर्वतीय क्षेत्रों के तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।
- पर्वतीय क्षेत्रों के पारिस्थितिकी तंत्र में वर्ष का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पर्वतीय क्षेत्रों की ढलान युक्त भूमि में वर्षा जल के रूकने के लिये धीमी और लंबे समय तक चलने वाली वर्षा सबसे उपयुक्त होती है, परंतु पिछले कुछ सालों में वर्षा की आवृत्ति तथा वर्षा दिवसों में हुई कमी ने इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है।
- देश के पर्वतीय राज्यों में शहरीकरण के साथ ही भूमिगत खनिज पदार्थों के लिये खनन, फैक्टरी, बाँध के निर्माण जैसी गतिविधियों से क्षेत्र की प्राकृतिक संरचना के महत्त्वपूर्ण घटकों को अपूरणीय क्षति हुई है। इस क्षेत्र में खनन गतिविधियों में वृद्धि से प्राकृतिक जल के स्रोतों को नुकसान तो हुआ ही है, साथ ही खनन के कारण भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ जाने से जल के संचयन में भी कमी आई है, जिसने जल संकट की समस्या को और बढ़ा दिया है।
- हिमालयी क्षेत्र के वर्तमान जल संकट के मुख्य कारणों में जल की आपूर्ति के साथ ही उसके उचित प्रबंधन के लिये आवश्यक प्रयासों में कमी भी शामिल है।
पर्वतीय राज्यों में जल संकट से निपटने के लिये भारत सरकार द्वारा की गयी पहलें:
- भारत सरकार ने नीति आयोग की अभिनव भारत @75 योजना के तहत वर्ष 2023 तक भारत में जल संरक्षण के लिये कई स्तरों पर कार्ययोजना की रूपरेखा प्रस्तुत की है। इस योजना के अंतर्गत पेयजल से लेकर कृषि और उद्योगों में प्रयोग होने वाले जल के संबंध में व्यवस्थित कार्ययोजना द्वारा जल का संरक्षण सुनिश्चित करना है।
- सिक्किम राज्य में वर्ष 2008 में शुरू हुई ‘धारा विकास’ योजना के माध्यम से प्राकृतिक झरनों के संरक्षण के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए।
- जल शक्ति अभियान: जल संकट से त्रस्त देश के 255 ज़िलों में जल-संरक्षण के लिये जुलाई 2019 को जल शक्ति अभियान की शुरुआत की गई है। इस पहल के तहत सरकार की विभिन्न योजनाओं जैसे-मनरेगा, एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम आदि के समन्वय से इन क्षेत्रों में जल संरक्षण के प्रयासों को बढ़ावा देना है।
- साथ ही भारत सरकार द्वारा ‘जल जीवन मिशन’ परियोजना के अंतर्गत जल आपूर्ति के अतिरिक्त जल संरक्षण के लिये 1 लाख करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त अटल भू-जल योजना तथा राष्ट्रीय जल नीति की भी शुरुआत की गयी है।
निष्कर्षतः सरकार की योजनाएँ थोड़े समय के लिये राहत प्रदान करने में तो सफल हो सकती हैं परंतु एक समग्र कार्ययोजना और सभी हितधारकों के सहयोग के अभाव में समय के साथ-साथ इस क्षेत्र में जल-संकट की समस्या और अधिक गंभीर होने की संभावना भी है। अतः यह आवश्यक है कि क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिये सभी हितधारकों द्वारा सामूहिक प्रयासों को बढ़ावा दिया जाए तथा भविष्य में विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में विकास और प्रकृति के बीच समन्वय पर विशेष ध्यान दिया जाए।