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प्रश्न :
बिस्मार्क की विदेश नीति उस समय तक सफल रही जब तक वह जर्मनी का चांसलर रहा। आलोचनात्मक विश्लेषण करें।
02 Mar, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोणः
• बिस्मार्क की विदेश नीति के उद्देश्य का संक्षिप्त परिचय दें।
• विदेश नीतियों का संक्षिप्त वर्णन।
• नीतियों का विश्लेषण करें व उत्तर को पुष्ट करें।
1871 ई. के बाद बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। जर्मनी को संगठित व शक्तिशाली बनाने के उपरांत बिस्मार्क ने ‘युद्ध-नीति’ त्यागकर और कूटनीतिज्ञ रणनीतियों को अपनाकर यूरोप में शांति स्थापित करने का प्रयास किया। बिस्मार्क की सफल कूटनीतिज्ञ रणनीतियाँ इस प्रकार हैंः
तीन सम्राटों का संघः बिस्मार्क ने जर्मनी, ऑस्ट्रिया व रूस को मिलाकर तीन सम्राटों के संघ का गठन किया जो कि कुछ समय बाद बाल्कन की समस्या के परिणामस्वरूप विघटित हो गया।
आस्ट्रो-जर्मन द्विगुटः यह बिस्मार्क की कूटनीति की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस संधि के अंतर्गत युद्ध अवस्था में एक-दूसरे की सहायता का संकल्प लिया गया।
त्रिगुट संगठन का निर्माणः तत्पश्चात् बिस्मार्क ने इटली, जर्मनी व ऑस्ट्रिया का त्रिगुट संगठन बनाया। उल्लेखनीय है कि इटली व ऑस्ट्रिया शत्रु देश थे।
पुनराश्वासन संधिः 1883 ई. में जर्मनी और ऑस्ट्रिया ने रूमानिया के साथ संधि की जो रूस के विरुद्ध थी। अतः रूस, फ्राँस से संधि न करे, इस कारण बिस्मार्क ने रूस से 1887 में पुनराश्वासन संधि की।
ब्रिटेन के प्रति नीतिः ब्रिटेन की नाविक शक्ति की श्रेष्ठता के कारण बिस्मार्क ने उसे चुनौती नहीं दी। इस प्रकार उसने ब्रिटेन को यूरोपीय व्यवस्था से दूर रखा।
रूस के साथ पुनराश्वासन संधि के उपरांत बिस्मार्क को 1890 में त्यागपत्र देना पड़ा। जर्मनी का एकीकरण पूरा होने के उपरांत उसने नए साम्राज्य की सुरक्षा नीति के अंतर्गत एक सशक्त विदेश नीति का अवलंबन किया। बिस्मार्क ने नई संधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक सर्वथा नवीन पद्धति का सूत्रपात किया और इस व्यवस्था को सफलतापूर्वक लागू किया।
हालाँकि बिस्मार्क की समस्त संधियाँ अंतर्विरोधों से परिपूर्ण थीं। ऑस्ट्रिया, इटली व रूस के हित कई मामलों में टकराते थे तथा इनका समन्वय एक जटिल कार्य था जो बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। उसके पदत्याग के 4 वर्ष के भीतर संपूर्ण पद्धति का अंत हो गया। बिस्मार्क की पद्धति में इंग्लैंड सम्मिलित नहीं था जो एक दोष था। अपने कार्यकाल के दौरान बिस्मार्क ने फ्राँस को यूरोपीय राजनीति से अलग-थलग व मित्रविहीन तो रखा परंतु उसे न तो निर्बल बना सका और न ही उसके असंतोषों को दूर कर सका। यही कारण था कि बिस्मार्क की नीतियाँ लघुकालीन थीं।
इस प्रकार यह उचित है कि बिस्मार्क के चांसलर रहने तक उसकी नीतियाँ सफल थीं परंतु यह सफलता दीर्घकालीन नहीं थी। क्योंकि बिस्मार्क के उपरांत जर्मनी में ऐसा कोई कूटनीतिज्ञ नहीं था जो गुप्त संधियों के सूक्ष्म संतुलन को बनाए रख सके। फलतः बिस्मार्क के उपरांत फ्राँस को यूरोपीय राजनीति में लौटने का सुअवसर प्राप्त हो गया जिसकी परिणति प्रथम विश्व युद्ध के रूप में हुई। साथ ही अंतर्विरोधों पर टिकी इस व्यवस्था को अत्यंत सफल कहना सर्वथा उचित न होगा।
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