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प्रश्न :
हाल ही में भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण ने कच्छ की खाड़ी में प्रवाल भित्तियों को बायोरॉक तकनीक का उपयोग करते हुए पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है। बायोरॉक तकनीक से क्या आशय है? प्रवाल के विकास की आदर्श दशाओं की चर्चा करते हुए प्रवाल विरंजन की समस्या पर प्रकाश डालें।
20 Feb, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरणउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका।
• बायोरॉक तकनीक का संक्षिप्त परिचय।
• प्रवाल क्या है?
• प्रवाल विरंजन।
• प्रवाल संरक्षण के संभावित उपाय।
कच्छ की खाड़ी में उच्च ज्वार की स्थितियों को देखते हुए हाल ही में गुजरात के मीठापुर तट से एक नॉटिकल मील की दूरी पर बायोरॉक संरचना स्थापित की गई है। इससे पहले वर्ष 2015 में भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण ने गुजरात वन विभाग के साथ मिलकर एक्रोपोरिडे परिवार (एक्रोपोरा फॉर्मोसा, एक्रोपोरा ह्यूमिलिस, मोंटीपोरा डिजिटाटा) से संबंधित प्रजातियों (स्टैग्नोर्न कोरल) को सफलतापूर्वक मन्नार की खाड़ी में पुनर्स्थापित किया था जो लगभग 10,000 वर्ष पहले कच्छ की खाड़ी से विलुप्त हो गए थे।
बायोरॉक, इस्पात संरचनाओं पर निर्मित समुद्री जल में विलेय खनिजों के विद्युत संचय से बनने वाला पदार्थ है। इन इस्पात संरचनाओं को समुद्र के तल पर उतारा जाता है और सौर पैनलों की सहायता से इनको ऊर्जा प्रदान की जाती है जो समुद्र की सतह पर तैरते रहते हैं।
यह प्रौद्योगिकी पानी में इलेक्ट्रोड के माध्यम से विद्युत की एक छोटी मात्रा को प्रवाहित करने का काम करती है। जब एक धनावेशित एनोड और ऋणावेशित कैथोड को समुद्र के तल पर रखकर उनके बीच विद्युत प्रवाहित की जाती है तो कैल्शियम आयन और कार्बोनेट आयन आपस में संयोजन करते हैं जिससे कैल्शियम कार्बोनेट का निर्माण होता है, कोरल लार्वा कैल्शियम कार्बोनेट की उपस्थिति में तेज़ी से बढ़ते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार, टूटे हुए कोरल के टुकड़े बायोरॉक संरचना से बंधे होते हैं जहाँ वे अपनी वास्तविक वृद्धि की तुलना में कम-से-कम चार से छह गुना तेज़ी से बढ़ने में सक्षम होते हैं क्योंकि उन्हें स्वयं के कैल्शियम कार्बोनेट कंकाल के निर्माण में अपनी ऊर्जा खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती है।
प्रवाल भित्ति:
प्रवाल जिसे मूंगा या कोरल भी कहते हैं एक प्रकार का समुद्री जीव है इसके शरीर के बाहरी तंतुओं में एक प्रकार का पादप शैवाल रहता है जिसे ज़ूक्सान्थालाई कहते हैं। यह शैवाल प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से अपनेआहार की आपूर्ति करता है।
प्रवाल के विकास की आदर्श दशाएँ:
- प्रवाल मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में 25o उत्तरी से 25o दक्षिणी अक्षांशों के मध्य 20-21o तापमान वाली परिस्थितियों में पाया जाता है।
- इसके लिये सूर्य का प्रकाश आवश्यक है, इसीलिये प्रवाल 200-250 फिट के जीवित नहीं रह पाते हैं।
- प्रवाल के लिये अवसाद रहित स्वच्छ जल होना चाहिये क्योंकि अवसादों की उपस्थिति में प्रवाल का मुँह बंद हो जाता है इसी कारण इनका विकास नदी के मुहाने पर नहीं होता है। इनके विकास के लिये 27-30 0/00 लवणता अति उत्तम मानी जाती है।
प्रवाल विरंजन से संबंधित समस्या सर्वप्रथम वर्ष 1998 में देखी गई जब अत्यधिक ताप के कारण कई महासागरों में एक साथ प्रवाल मर गए। इसके पश्चात् इसके कारणों की जाँच के लिये वैश्विक प्रवाल भित्ति मॉनीटरिंग नेटवर्क द्वारा ‘वैश्विक स्तर पर प्रवाल भित्तियों की स्थिति” नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसको क्लाइव विल्किंस द्वारा संपादित किया गया। रिपोर्ट के अनुसार, प्रवाल विरंजन के मुख्य कारण निम्न हैं-
- प्रदूषण, अति मत्स्यन और मानवीय दबाव।
- जलवायु परिवर्तन प्रेरित महासागरीय अम्लीकरण।
- स्वच्छ जल की अतिरेक आपूर्ति।
- अवसादों की मात्रा में वृद्धि।
- ग्लोबल वार्मिंग के कारणसमुद्री जल सतह का ऊपर उठना।
- संक्रामक रोग (कोरल प्लेग)।
- सौर विकिरण में वृद्धि।
प्रवाल संरक्षण:
- वैश्विक स्तर पर इनके संरक्षण के लिये कोई बाध्यकारी विनियमन नहीं हैं, अंतर्राष्ट्रीय खाद्य और कृषि संगठन द्वारा आर्द्रभूमि, मैंग्रोव और प्रवाल भित्ति के संरक्षण हेतु कुछ प्रावधानों का नियमन किया गया था लेकिन इस प्रकार के प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सका।
- लेकिन संस्थागत स्तर पर वैश्विक प्रवाल भित्ति मॉनीटरिंग नेटवर्क, अंतर्राष्ट्रीय प्रवाल भित्ति पहल और राष्ट्रीय सामुद्रिक एवं वायुमंडलीय प्रशासन (NOAA) जैसे संगठन प्रवाल के संरक्षण के लिये प्रयासरत हैं। इसके अतिरिक्त भारत के स्तर पर तटीय विनियमन ज़ोन के नियमों द्वारा समुद्री संसाधनों के संरक्षण के माध्यम से इनका बचाव किया जाता है।
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