वनों की अंधाधुंध कटाई और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली इंसानी गतिविधियों के कारण धरती लगातार सिकुड़ती जा रही है तथा उपजाऊ ज़मीन मरुस्थल में बदल रही है।’ मरुस्थलीकरण के कारणों पर चर्चा करते हुए इससे निपटने के उपायों को बताएं।
29 Jan, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल
हल करने का दृष्टिकोण: • मरुस्थलीकरण क्या है ? • मरुस्थलीकरण के कारण। • इससे निपटने के उपाय। • निष्कर्ष। |
मरुस्थलीकरण एक ऐसी भौगोलिक घटना है, जिसमें उपजाऊ क्षेत्रों में भी मरुस्थल जैसी विशिष्टताएँ विकसित होने लगती हैं। इसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क, निर्जल इलाकों की ज़मीन रेगिस्तान में बदल जाती है। इससे ज़मीन की उत्पादन क्षमता का ह्रास होता है। मरुस्थलीकरण से प्राकृतिक वनस्पतियों का क्षरण तो होता ही है, साथ ही कृषि उत्पादकता, पशुधन एवं जलवायवीय घटनाएँ भी प्रभावित होती हैं।
भारत में भू-क्षरण का दायरा 96.40 मिलियन हेक्टेयर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 29.30 प्रतिशत है। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2003-05 और 2011-13 के बीच 18.7 लाख हेक्टेयर भूमि का मरुस्थलीकरण हुआ है।
मरुस्थलीकरण के कारण न केवल मानवीय जीवन बल्कि वन्यजीवन भी प्रभावित हो रहें है। भूमि के बंजर होने से लगातार कृषि क्षेत्र घटता जा रहा है और भू-क्षरण बढ़ रहा है जिससे निकट भविष्य में खाद्यान्न संकट गहराने की संभावना जताई जा रही है। यही कारण है कि पूरी दुनिया मरुस्थलीकरण को लेकर चिंतित है और इसी चिंता ने विश्व के सभी देशों को मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये एकजुट किया। UNCCD की पार्टियों के 14वें सम्मेलन का लक्ष्य भी बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकना ही रखा गया है।
मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारण
पानी से कटाव: नदियों से होने वाले ज़मीन के कटाव के कारण सौराष्ट्र और कच्छ के ऊपरी इलाकों के काफी बड़े क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। कटाव के कारण ज़मीन की सतह में कई तरह के बदलाव आते हैं और भू-क्षरण बढ़ता है।
हवा से मिट्टी का कटाव: हवा से मिट्टी के कटाव का सबसे बुरा असर थार के रेतीले टीलों और रेत की अन्य संरचनाओं पर पड़ा है। मरुस्थल के अन्य भागों में किसान यह बात स्वीकार करते हैं कि ट्रैक्टरों के जरिये गहरी जुताई, रेतीले पहाड़ी ढलानों में खेती, अधिक समय तक ज़मीन को खाली छोड़ने और अन्य परंपरागत कृषि प्रणालियों से रेत का प्रसार और ज़मीन के मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज़ होती है। साथ ही जनसंख्या के दबाव और आर्थिक कारणों से पर्यावरण संबंधी मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।
एक प्रमुख समस्या ज़मीन में पानी जमा होने और लवणता एवं क्षारता बढ़ जाने की है। कछारी मैदानों में खारे भूमिगत जल से सिंचाई की वजह से लवणता और क्षारता की समस्या उत्पन्न हो गई है। कच्छ और सौराष्ट्र के कछारी तटवर्ती इलाकों में बहुत अधिक मात्रा में भूमिगत जल निकालने से कई स्थानों पर समुद्र का खारा पानी जल स्रोतों में भर गया है। थार मरुस्थल में इंदिरा गाँधी नहर के कमान क्षेत्र की ज़मीन में पानी जमा होने और लवणता-क्षारता जैसी समस्याएँ बड़ी तेज़ी से बढ़ रही हैं।
औद्योगिक कचरा: हाल के वर्षों में राजस्थान में औद्योगिक कचरे से भूमि और जल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। जोधपुर, पाली और बलोत्रा कस्बों में कपड़ा रंगाई और छपाई उद्योगों से निकले कचरे को नदियों में छोड़े जाने से भू-तलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है।
निर्वनीकरण: वनों का कटाव मरुस्थल के प्रसार का प्रमुख कारण है। गुणात्मक रूप से बढ़ती जनसंख्या के कारण ज़मीन पर बढ़ते दबाव की वज़ह से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के ह्रास में वृद्धि हो रही है। जंगल सिकुड़ रहे हैं और मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिल रहा है।
नियन्त्रण के उपाय
रेतीले टीलों का स्थिरीकरण: रेतीले टीलों वाला 80 प्रतिशत क्षेत्र किसानों के स्वामित्व में है और उस पर बरसात में खेती की जाती है। इस तरह के रेतीले टीलों को स्थिर बनाने की तकनीक एक जैसी है मगर समूचे टीले को पेड़ों से नहीं ढका जाना चाहिये। पेड़ों को पट्टियों के रूप में लगाया जाना चाहिये।
रक्षक पट्टी वृक्षारोपण: रेतीली ज़मीन और हवा की तेज़ रफ्तार की वजह से खेती वाले समतल इलाकों में काफी मिट्टी का कटाव होता है। कई बार तो मिट्टी का क्षरण 5 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुँच जाता है। अगर हवा के बहाव की दिशा में 3 से 5 कतारों में पेड़ लगाकर रक्षक पट्टियाँ बना दी जाएँ तो मिट्टी का कटाव काफी कम किया जा सकता है।
विमानों से बीजों की बुवाई: जमीन की रेतीली प्रकृति के कारण उसमें पानी को रोककर रखने की क्षमता बहुत कम होती है। परिणामस्वरूप बीजों की बुवाई दो-तीन दिन में पूरी करना आवश्यक है ताकि उनका अंकुरण हो सके। विशाल दुर्गम इलाकों में नमी की कमी, वर्षा की अनिश्चितता और रेतीली ज़मीन की अस्थिरता की वजह से वनीकरण की परंपरागत विधियाँ अपर्याप्त हैं। इसलिये विमानों से बीज गिराकर वनों में पेड़ उगाने की विधि अपनाई जा सकती है।
सिल्विपाश्चर प्रणाली: ईंधन और चारे की ज़रूरत पूरी करने के लिये पेड़-पौधों तथा वनस्पतियों की अंधाधुंध कटाई से भी मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। इस पर नियंत्रण के लिये सिल्विपाश्चर प्रणाली वाला दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है। इससे धूप और हवा से ज़मीन के कटाव को कम करने तथा उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलती है। इसके अलावा इससे संसाधनों का संरक्षण करके आर्थिक स्थायित्व भी लाया जा सकता है
न्यूनतम खुदाई: क्यारियाँ और खेत तैयार करने, ज़मीन में नमी बनाए रखने तथा खरपतवार पर नियंत्रण के लिए खेत की जुताई बहुत ज़रूरी है लेकिन शुष्क जलवायु वाले इलाकों में ज़्यादा जुताई करने से हवा से होने वाले मिट्टी के कटाव का खतरा बढ़ जाता है। जिन स्थानों में खेती में उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं होता वहाँ आमतौर पर यह तरीका इस्तेमाल किया जाता है। संवेदनशील इलाकों में किसानों को गर्मियों के मौसम में खेतों की जुताई न करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। पहली वर्षा के बाद जब ज़मीन में नमी उचित मात्रा में हो, कम जुताई करने से मिट्टी के ढेले बनने में मदद मिलती है। इससे खेत की सतह सपाट नहीं हो पाती और इस तरह हवा से होने वाला मिट्टी का कटाव कम होता है।
दो फसलों के बीच की अवधि में कटी फसलों की जड़ें और तने हवा से होने वाले मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। अगर इस विधि का ठीक से उपयोग किया जाए तो भू-क्षरण रोकने का यह शानदार उपाय है।
सिंचाई के पानी का सही इस्तेमाल: मरुस्थलीकरण को रोकने में सिंचाई की महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ लगाने तथा उनके विकास में सिंचाई बड़ी उपयोगी साबित होती है। अत्यधिक रेतीले और टीले वाले इलाकों में फसल और पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ उगाने हेतु सिंचाई के लिये स्प्रिंकलर प्रणाली का कारगर इस्तेमाल किया जा सकता है।
खनन गतिविधियों पर नियंत्रण भी विचारणीय है इस समय बंद हो चुकी खानें या तो बंजर पड़ी हैं या उन पर बहुत कम वनस्पतियाँ हैं। इन्हें फिर से हरा-भरा करने की ज़रूरत है। शुष्क जलवायु में पेड़-पौधों और वनस्पतियों की कुछ प्रजातियाँ जैसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, अकेसिया टार्टिलिस, कोलोफास्पर्नम और डिस्क्रोस्टैचिस काफी अच्छी तरह उग सकती हैं। इन्हें बंद हो चुकी खानों की बंजर भूमि को हरा-भरा करने के लिये उपयोग में लाया जा सकता है।