‘एक ही देश के विभिन्न कालों में सेना की नैतिक संहिता भी बदल जाती है’ कथन के संदर्भ में सैन्य नैतिकता के विविध पक्षों का विश्लेषण करें।
27 Jan, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नप्राचीनकाल से ही किसी भी पेशेवर सेना के लिये प्रतिष्ठा सबसे महत्त्वपूर्ण रही है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का तो मिलिट्री कोड है: ड्यूटी , ऑनर, कंट्री। भारतीय सैन्य अकादमी के चेटवुड मोटो में किसी भी सैन्य अधिकारी की शीर्ष प्राथमिकताओं में ‘ऑनर’ यानी प्रतिष्ठा शामिल है।
नैतिकता का संबंध मानवीय अभिवृत्ति से है, इसलिये शिक्षा से इसका महत्त्वपूर्ण अभिन्न व अटूट संबंध माना जाता है। कौशल व दक्षता की अपेक्षा अभिवृत्ति-मूलक प्रवृत्तियों के विकास में पर्यावरणीय घटकों का विशेष योगदान होता है। यदि बच्चों के परिवेश में नैतिकता के तत्त्व पर्याप्त रूप से उपलब्ध नहीं हो तो परिवेश में जिन तत्त्वों की प्रधानता होगी वे जीवन के अंश बन जाएंगे। इसीलिये कहा जाता है कि मूल्य पढ़ाए नहीं जाते, अधिगृहीत किये जाते हैं। यही बात किसी भी देश में वहाँ की सेना पर लागू होती है।
सैन्य नैतिकता के विविध पक्ष
एक ही देश के विभिन्न कालों में सेना की नैतिक संहिता भी बदल जाती है। जहाँ पहले पुरातन काल में सेना का कार्य युद्ध जीतना और साम्राज्य प्रसार करना ही होता था, वह बेशक किसी भी कीमत पर क्यों न हो। अराजकतावादी नेतृत्व के अंतर्गत सेना खूब लूट-खसोट करती थी,महिलाओं-बच्चों को भी युद्ध की विभीषिका में अपने को झोंकना होता था, वहीं सेना खूब दैहिक शोषण करती थी जिसकी एक बानगी दास प्रथा के रूप में देखी जा सकती है, वही वर्तमान दौर में एक सुदृढ़ संविधान एवं लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत सेना का चरित्र बदल गया है। उसके नैतिक पैमाने भी बदल गए हैं, वही सेना जो कभी रक्षक से भक्षक कहलाती थी, अब अपने बदले हुए रूप में रक्षक कहलाती है। नैतिकता/नैतिक मूल्य वास्तव में ऐसी सामाजिक अवधारणा है जिसका मूल्यांकन किया जा सकता है। यह कर्त्तव्य की आंतरिक भावना है और उन आचरण के प्रतिमानों का समन्वित रूप है जिनके आधार पर सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित का निर्णय किया जा सकता है और यह विवेक के बल से संचालित होती है।
वस्तुतः किसी भी देश की सेना के बारे में कहा तो यह जाता है कि नैतिक पथ पर अग्रसर होते हुए वीरता का पथ विश्वशांति और सौहार्द्र की ओर जाता है तथा युद्ध में मानवीयता का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष भी होता है, लेकिन पाकिस्तान की फौज ने बार-बार इन नियमों का उल्लंघन कर सेना की नैतिकता को खुली चुनौती दी है। कुछ वर्ष पहले दिल दहलाने वाली वह घटना मस्तिष्क में आज भी याद है, जब भारत-पाक सीमा के उत्तरी क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में सीमा रक्षा में संलग्न दो भारतीय सैनिकों की पाकिस्तानी सैनिकों ने नृशंस हत्या कर दी। इतना ही नहीं वे उन सैनिकों में से एक का सिर काट कर सीमा के पार ले गए तथा उनके शवों को क्षत-विक्षत करके फेंक दिया। यह सैन्य बर्बरता का एकदम जाहिलाना अंदाज़ है, जो किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं है।
सैनिक की संवेदना शांति से युद्ध तक असीमित विस्तार लिये होती है। जहाँ वह एक ओर जानलेवा भीषण संग्रामों के दुर्धर्ष आक्रमण में अपने साहस की कठिनतम परीक्षा से गुज़रता है तो दूसरी ओर घायल साथियों के प्रति करुणा की गहरी खाइयों से गिरते हुए अपने धैर्य को सँभालता है, जबकि तीसरी ओर शत्रु सैनिकों के प्रति नफरत से ऊपर उठकर मानवता के उच्चतम आदर्शों का प्रदर्शन करते हुए उनका सम्मान करता है। भारतीय सेना संवेदना के इस विस्तृत त्रिकोण पर सफलता के साथ संतुलन साधने की योग्यता रखने वाली विश्व की महानतम सेना है। वीरता का पथ केवल संग्राम नहीं होता सेवा, सहयोग, निर्माण, धैर्य सेना के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण गुण होते हैं।
भारतीय सेना द्वारा दुश्मन की सेना के युद्ध में पकड़े गए अथवा घायल या मृत सैनिकों के प्रति बहुत ही संवेदनात्मक व्यवहार रहा है, जो अपने आप में एक गर्व की बात है। कारगिल युद्ध के दौरान कारगिल क्षेत्र की ऊँची चोटियों पर पाक सेना के कुछ सैनिक भारतीय क्षेत्र में मृत पाए गए थे। उनके पास से जो दस्तावेज़ बरामद हुए थे, उनसे पता चला कि ये पाकिस्तान की ‘नार्देन लाईट इन्फेंट्री’ के जवान थे, जिन्हें आम नागरिक के कपड़े पहनाकर घुसपैठियों के रूप में कारगिल की चोटियों पर भेज दिया गया था। जब भारतीय अधिकारियों ने उनके शवों को पाकिस्तान को सौंपना चाहा तो उन्होंने उनके शव लेने से केवल इसलिये इनकार कर दिया ताकि वे संयुक्त राष्ट्र संघ की रक्षा समिति तथा पूरे विश्व के सम्मुख यह साबित कर सकें कि उनकी सेना ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन नहीं किया है। तब मानव मूल्यों में आस्था रखने वाले हमारे सैनिकों ने पूरी इस्लामिक रीति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया था। ये भारतीय सेना के प्रशिक्षण तथा उनके हृदय में बसी हुई नैतिकता का ज्वलंत दृष्टांत है।
आज की ऐसी दुखांत परिस्थितियों में अगर प्राचीन इतिहास का स्मरण किया जाए जहाँ युद्ध बंदी पोरस से सिकंदर ने पूछा था, आप मेरे बंदी हैं, आप के साथ कैसा व्यवहार किया जाए? वीर पोरस ने कहा, जो एक वीर राजा दूसरे बंदी राज्य के साथ करता है। यह सुन कर सिकंदर को अपना सैनिक धर्म याद रहा और उसने पोरस को ना केवल रिहा कर दिया अपितु उसकी वीरता को ध्यान में रखते हुए उसे उसका राज्य लौटा दिया। आज विडम्बना यह है कि भारत-पाक, चीन-वियतनाम, अमेरिका-उत्तरी कोरिया, पड़ोसी देश म्याँमार में रोहिंग्या के साथ बर्बरता जैसी अमानवीय घटनाएँ जिस सीमा क्षेत्र में ये होती हैं, वहाँ पोरस की नैतिकता से कोई सबक नहीं लिया जाता है।
युद्ध क्षेत्र में शत्रु को परास्त करने की भावना प्रबल होती है। उस समय सैनिक का केवल एक ही उद्देश्य होता है कि किस प्रकार दृढ़ निश्चय के साथ शत्रु को नष्ट किया जाए। ऐसी प्रक्रिया में दोनों पक्षों में जनहानि होना स्वाभाविक है। ऐसी मुठभेड़ में अगर शत्रु पक्ष का कोई सैनिक घायल हो जाए, पलट कर वार करने में अक्षम हो जाए अथवा युद्धबंदी हो जाए तो वहाँ मानव धर्म सर्वोपरि हो जाता है। तब वह शत्रु नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में विश्व की हर सेना को जिनेवा कन्वेंशन के नियमों का पालन करना पड़ता है और फिर मानवता, दया तथा सौहार्द के भी कुछ अलिखित नियम होते हैं।