प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यक्त यथार्थवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालें।
18 Dec, 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यहिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा में प्रेमचंद का आगमन एक परिवर्तनकारी बिंदु है। यद्यपि रचनाकाल के आरंभिक दौर में प्रेमचंद आदर्शोन्मुख यथार्थवादी थे, किंतु जल्द ही वे कोरे यथार्थ की ओर उन्मुख हुए और यही उनके उपन्यासों की आत्मा रही।
प्रेमचंद के उपन्यासों में प्रकट यथार्थवाद किसी विचारधारा से प्रेरित नहीं है। हालाँकि आलोचकों ने उनके यर्थावाद को समाजवादी-मार्क्सवादी यथार्थवाद कहा है लेकिन निर्मला, सेवासदन, प्रेमाश्रम जैसे उपन्यासों में यह नारीवादी व अंबेडकरवादी प्रतीत होता है।
उनकी आरंभिक कृति सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायकल्प, कर्मभूमि आदि का यथार्थवाद सुधारात्मक व अन्य परिवर्तन जैसे तत्वों से युक्त था। किंतु गोदान तक आते-आते उनके उपन्यास का यथार्थवाद नग्न रूप में व्यक्त हुआ है।
प्रेमचंद ने अपने उपन्यास में केवल सामाजिक-आर्थिक यथार्थ को ही शामिल नहीं किया है बल्कि मनोवैज्ञानिक सत्यों को भी उजागर किया है। दलित व नारी संबंधी मनोविज्ञान उनके कई उपन्यासों में काफी गहराई से व्यक्त हुआ है।
प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यक्त यथार्थ एक अन्य मामले में भी विशिष्ट है और यह कि वह देशकाल की सीमा से परे है। चाहे गोदान में व्यक्त होरी की समस्या हो या निर्मला में व्यक्त निर्मला की समस्या। आज भी ये हमारे आस-पास की समस्या के रूप में मौजूद है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य के उपन्यास को मजबूती से यथार्थ के साथ जोड़ने का कार्य किया और हिंदी उपन्यास को नई दिशा प्रदान की।