भारत की प्रतिष्ठित, ख्यातिलब्ध संस्थाएँ; विश्वसनीयता के संकट से ग्रसित दिखलाई दे रही हैं। यह संस्थाओं की ढाँचागत समस्या है या यह क्षरण संस्थाओं के संचालनकर्त्ताओं के व्यक्तित्व से जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
प्रश्न विच्छेद
भारत की प्रतिष्ठित, ख्यातिलब्ध संस्थाओं की हालिया कार्यपद्धति व इनके संभावित प्रभावों की चर्चा करनी है।
हल करने का दृष्टिकोण
प्रतिष्ठित संस्थाएँ-सामान्य परिचय।
कुछ ख्यातिलब्ध संस्थाओं का उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिये।
निष्कर्ष दीजिये।
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भारतीय लोकतंत्र अपने सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में कहाँ तक सफल रहा है यह अवश्य विवाद का विषय हो सकता है, परंतु अपने संस्थागत रूप में यह अत्यंत सफल रहा है। आपातकाल का दौर छोड़ दें तो भारतीय लोकतंत्र की सफलता तृतीय विश्व के देशों में एक उदाहरण ही है। ऐसा इस कारण है कि भारत की ख्यातिलब्ध, प्रतिष्ठित संस्थाओं यथा-उच्च न्यायपालिका, चुनाव आयोग आदि ने अपना कार्य पूर्ण निष्पक्षता से किया है। वहीं जनता का भी इन संस्थाओं के कार्य-कलाप पर अटूट विश्वास रहा है परंतु पिछले कुछ वर्षों में ये संस्थाएँ संदिग्धता के घेरे में आई हैं जो भारतीय लोकतंत्र हेतु शुभ संकेत नहीं है। इसे निम्नानुसार समझा जा सकता है:
- चुनाव आयोग एक अधिकार प्राप्त संवैधानिक संस्था है जो देश में चुनाव (लोकतंत्र का प्राणतत्त्व) निष्पक्ष ढंग से कराने के लिये ज़िम्मेदार है। देखा जाए तो अक्तूबर 2017 में गुजरात व हिमाचल प्रदेश के लिये चुनाव की तरीखें घोषित करते समय आयोग ने केवल हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा की, गुजरात की नहीं। इसे लेकर आयोग की आलोचना हुई जिस पर आयोग ने बाढ़ राहत कार्यों के जारी रहने का स्पष्टीकरण दिया, जबकि कोई भी आचार संहिता प्राकृतिक आपदा में राहत पहुँचाने के किसी कार्य को बाधित नहीं करती। 2014 में जम्मू-कश्मीर राज्य में भी भीषण बाढ़ आई थी व 300 से ज़्यादा लोग मारे गए थे परंतु आयोग ने उसी वर्ष नियत समय पर 5 चरणों में चुनाव करवाए।
- इसी प्रकार इलेक्टोरल बॉन्ड्स को लेकर भी आयोग की भूमिका संदेहास्पद नज़र आती है। मई 2017 में चुनावी फंडिंग के लिये सरकार ‘इलेक्टोरल बॉन्ड्स’ लेकर आई जिसे क्रांतिकारी कदम कहा गया, जबकि चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने का प्रावधान इसमें सम्मिलित है, इस पर कि चुनाव आयोग ने भी सहमति जताई, जबकि स्वंय नसीम जैदी (Ex-CEC) के अनुसार यह जनता की लोकतांत्रिक गरिमा का हनन है। इस प्रकार यह प्रकरण विश्व के सर्वश्रेष्ठ चुनाव आयोग पर प्रश्नचिन्ह्न लगाता है।
- इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट में जजों का आपसी टकराव व उसका मीडिया के माध्यम से इस प्रकार सार्वजनिक हो जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में केसों का आवंटन, बेंचों का निर्माण आदि व इनमें मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को लेकर 4 वरिष्ठ जजों का प्रेस कॉन्फ्रेंस करना यह दर्शाता है कि यहाँ इस संस्था में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
- मुंबई हाईकोर्ट द्वारा सोहराबुद्दीन फर्ज़ी एनकाउंटर केस की जिस प्रकार से सुनवाई हुई है उस पर हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त पूर्व न्यायाधीशों द्वारा भी सवाल उठाए गए हैं। पुन: कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिम भट्ट का नाम कोलेजियम द्वारा बार-बार सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति के लिये भेजा गया और दोनों ही बार उनका नाम खारिज कर दिया गया। वर्तमान में पुन: उनके विरूद्ध कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा जाँच का आदेश दिया गया है।
- ऐसा ही कुछ हम कैग के संदर्भ में देखते हैं जहाँ पूर्व कैग विनोद राय ने 2G स्पेक्ट्रम वाद में 1 लाख 75 हज़ार करोड़ रुपए का संभावित घाटा दर्शाया था, जबकि 7 वर्षों तक चली सुनवाई के बाद भी कोई भी घाटा सिद्ध नहीं हो सका तथा सभी आरोपी बरी कर दिये गए। नई सरकार के आने पर वर्ष 2016 में श्री राय को बैंक ब्यूरो बोर्ड का अध्यक्ष भी बनाया गया।
- रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया जो कि अभी तक स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करता रहा है परंतु विमुद्रीकरण से RBI की साख को भी झटका लगा है। यह जानने के बाद भी कि अर्थव्यवस्था की स्थिति विमौद्रीकरण के लिये उचित नहीं है, रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने इसकी अनुमति दी व इसके पीछे जाली नोटों की समाप्ति, काले धन की समाप्ति, आतंकवाद को रोकने जैसे तर्क दिये गए। स्वयं रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की अगस्त, 2017 की रिपोर्ट के अनुसार 99% पुरानी करेंसी बैंकों में वापस आ चुकी है और बैंक अब इस पर ब्याज भी देंगे।
ऐसा नहीं हैं कि ये संस्थाएँ मानकों के अनुरूप कार्य नहीं कर रही हैं और न ही इनका ढाँचा कमज़ोर है। परंतु इनके संचालनकर्त्ताओं को दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा भी था कि ‘‘कोई संविधान उतना ही अच्छा हो सकता है जितना उसे लागू करने वाले लोग।’’ अत: संस्थाओं का निष्पक्ष व पारदर्शी होना समय की मांग है।