द्वितीय विश्वयुद्ध ने उस भू-राजनीतिक वातावरण का निर्माण किया, जिसने वि-औपनिवेशीकरण को बल दिया। उन कारणों को तुलनात्मक रूप से स्पष्ट कीजिये जिनके चलते इस संदर्भ में प्रथम विश्वयुद्ध विफल रहा। (250 शब्द)
23 Nov, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास
प्रश्न विच्छेद • वि-औपनिवेशीकरण के संदर्भ में द्वितीय विश्वयुद्ध की सफलता तथा प्रथम विश्वयुद्ध की विफलता के कारणों को स्पष्ट कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखिये। • प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान की परिस्थितियों को स्पष्ट कीजिये। • द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया पर चर्चा कीजिये। • निष्कर्ष दें। |
उपनिवेशवाद की समाप्ति को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में क्रांति की संज्ञा दी गई है। पूंजीवादी देशों को औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने के लिये निरंतर कच्चे माल की आवश्यकता थी। साथ ही, कारखानों में तैयार माल को बेचने के लिये बाज़ार की भी ज़रूरत थी। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये साम्राज्यवादी देशों द्वारा तृतीय विश्व के देशों को उपनिवेश बनाया गया। औपनिवेशिक प्रक्रिया का उद्देश्य साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा मातृ देश का हित तथा गुलाम राष्ट्र का अधिकाधिक शोषण करना था। शोषणकारी इसी प्रवृत्ति ने तृतीय विश्व के देशों में राष्ट्रवाद की भावना को जागृत किया, जिससे वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। वि-औपनिवेशीकरण के संदर्भ में प्रथम विश्वयुद्ध तथा द्वितीय विश्वयुद्ध ने भिन्न-भिन्न वातावरण सृजित किया।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही विश्व में दो प्रकार की स्थितियों उभर रही थीं। एक तरफ वे देश थे जिनका तीव्र गति से औद्योगीकरण हो रहा था, इनमें इंग्लैंड, अमेरिका व जर्मनी प्रमुख थे। इन पूंजीवादी राष्ट्रों को बाज़ार की आवश्यकता ने औपनिवेशिक विस्तार के लिये प्रेरित किया। वहीं, दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी देश थे जो अभी-अभी औद्योगीकरण की दौड़ में शामिल हुए थे तथा कृषि व उद्योग में संतुलन बनाए रखने की स्थिति का प्रयास कर रहे थे। फलत: ये देश भी एशिया और अफ्रीका पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते थे। स्पष्ट है कि नए राष्ट्रों पर अधिकार करने की होड़ और अपने धन व उत्पादों की खपत करने की अभिलाषा ने औपनिवेशिक संघर्ष को आरंभ किया, जिसका परिणाम प्रथम विश्वयुद्ध था। इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध ने औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदान की तथा तृतीय विश्व के अधिकतर राष्ट्र पूंजीवादी राष्ट्रों के अधीन हो गए। ध्यातव्य है कि पूंजीवादी राष्ट्रों ने तृतीय विश्व के देशों से युद्ध की समाप्ति के पश्चात् स्वशासन प्रदान करने का वायदा किया था लेकिन इन राष्ट्रों ने आज़ादी के स्थान पर शोषण की तीव्रता को बढ़ाकर औपनिवेशिक सत्ता को मज़बूत करना चाहा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् बदलती परिस्थितियों ने साम्राज्यवादी शक्तियों को कमज़ोर किया तथा अधीनस्थ देशों में राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार किया, जिससे वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का आरंभ हुआ। औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध तृतीय विश्व के देशों में राष्ट्रवादी आंदोलनों में तेजी आने तथा अमेरिका व सोवियत संघ का अन्य साम्राज्यवादी राष्ट्रों पर दबाव बनाने की रणनीति ने वि-औपनिवेशीकरण को मजबूत किया। द्वितीय विश्वयुद्ध में कुछ यूरोपीय शक्तियों की हार ने इनकी अजेयता के भ्रम को तोड़ दिया। साथ ही, युद्ध के पश्चात् पूंजीवादी राष्ट्रों की सैनिक व आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने लगी, जिसका प्रभाव तृतीय विश्व के देशों (एशिया व अफ्रीका) में स्वतंत्रता आंदोलन के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। स्पष्ट है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् गुलाम देशों में राजनैतिक चेतना जागृत होने तथा राष्ट्रीय विद्रोह की तीव्रता ने वि-औपनिवेशीकरण को मज़बूत किया।
स्पष्ट है कि प्रथम विश्वयुद्ध के घटित होने का मुख्य कारण उपनिवेशों की प्राप्ति तथा आर्थिक प्रतिद्वंद्विता थी जिसने औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को बाल प्रदान किया। वहीं, दूसरी तरफ द्वितीय विश्वयुद्ध ने गुलाम राष्ट्रों में राष्ट्रवाद तथा स्वतंत्रता आंदोलनों को सुदृढ़ किया, जिसका परिणाम वि-औपनिवेशीकरण के रूप में प्रकट हुआ।