- फ़िल्टर करें :
- भूगोल
- इतिहास
- संस्कृति
- भारतीय समाज
-
प्रश्न :
अंग्रेज़ों की भू-राजस्व नीतियों ने ग्रामीण क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने और ब्रिटिश खजाने को भरने के उपकरण के रूप में कार्य किया। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)
21 Nov, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
प्रश्न विच्छेद
ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व नीतियों के भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण कीजिये।
हल करने का दृष्टिकोण
सर्वप्रथम भूमिका लिखिये।
ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व नीतियों के ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण कीजिये।
भू-राजस्व नीतियों के माध्यम से आर्थिक शोषण को बताइये।
निष्कर्ष दीजिये।
ब्रिटिशकालीन औपनिवेशिक नीति का उद्देश्य भारत के संसाधनों का अधिकतम प्रयोग करके ब्रिटिश हितों की पूर्ति करना था। अपने इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अंग्रेज़ों ने तत्कालीन भारत की अर्थव्यवस्था में गाँवों की आत्मनिर्भरता तथा कृषि की प्राथमिकता को स्वीकार करते हुए शोषणपूर्ण भू-राजस्व नीति को लागू किया, जिसके माध्यम से ग्रामीण भारत को आत्मनिर्भरता से परनिर्भरता की तरफ मोड़ दिया गया तथा अधिकतम राजस्व वसूली द्वारा धन का निष्कासन ब्रिटिश खजाने को भरने के लिये किया गया, जिन्हें निम्नानुसार समझा जा सकता है:
- ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व नीतियों में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी व्यवस्था तथा महालवाड़ी व्यवस्था को प्रचलित किया गया। स्थायी बंदोबस्त प्रणाली के अंतर्गत ज़मींदारों को भूमि का वास्तविक स्वामी तथा कृषकों को अधीनस्थ रैयताें के रूप में बदल दिया गया। वर्ष 1794 के ‘सूर्यास्त के नियम’ के तहत निश्चित तिथि तक राजस्व जमा न करने पर ज़मींदारी नीलामी की व्यवस्था ने अनुपस्थित ज़मींदारी के माध्यम से कृषकों के शोषण को और बढ़ाया। वर्ष 1799 व 1812 के ‘बंगाल रेग्यूलेशन’ ने ज़मीदाराें को किसानों की भूमि नीलाम करने का अधिकार दे दिया, जिससे कृषि भूमि को पण्य की वस्तु के रूप में स्थापित करके बिचौलियों के माध्यम से उपसामंतीकरण को ग्रामीण समाज में स्थापित किया गया।
- इसी प्रकार रैयतवाड़ी व महालवाड़ी व्यवस्था की शोषणकारी नीतियों ने भी भारतीय कृषकों का शोषण किया। स्थायी बंदोबस्त की तरह यह प्रणाली भी ऊँची दर से राजस्व की वसूली करती थी, जिससे ग्रामीण ऋण-ग्रस्तता में वृद्धि हुई। फलत: ज़मींदार-कृषक संबंध संरक्षक-संरक्षित से बदलकर स्वामी-दास संबंध के रूप में स्थापित हुए।
- इसके अतिरिक्त ब्रिटिशों की भू-राजस्व नीतियों ने ग्रामीण क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करने हेतु कृषि के वाणिज्यीकरण को ज़बरदस्ती कृषकों को अपनाने के लिये बाध्य किया। इससे आत्मनिर्भर कृषि अर्थव्यवस्था बाज़ार प्रेरित व्यवस्था में परिवर्तित होकर पर-निर्भरता के रूप में स्थापित हो गई, इसके कारण ग्रामीण उद्योग व हस्तकला तथा शिल्पकला पर भी दबाव बढ़ा। फलत: कृषि भूमि पर दबाव बढ़ने लगा, जोत सीमाएँ छोटी होने लगीं तथा इसका प्रभाव ग्रामीण समाज पर भी पड़ा।
- ग्रामीण कृषि तंत्र की जर्जरता ने अकाल, गरीबी, भुखमरी की बारंबारता को बढ़ाया तथा समाज का आर्थिक विभाजन करके धनी को और अधिक धनी व गरीब को और अधिक गरीब बना दिया।
ब्रिटिश भारत में स्थायित्व के लिये ग्रामीण क्षेत्रों पर नियंत्रण के साथ-साथ औपनिवेशिक शक्ति के विस्तार व प्रशासन के सुदृढ़ीकरण हेतु अधिक धन की प्राप्ति की लालसा ने भू-राजस्व प्रणाली को अपनाने के लिये प्रेरित किया। लगान वसूली के संदर्भ में निश्चितता ने अंग्रेज़ों को मज़बूत आधार दिया, जिसने उनकी साम्राज्यवादी विस्तार की नीति को आक्रमकता प्रदान की। भू-राजस्व नीति के माध्यम से राजस्व की अधिकाधिक वसूली को ही उदारवादी नेता दादाभाई नौरोजी ने धन के निष्कासन के ज़रिये स्पष्ट किया तथा औपनिवेशिक नीति के तृतीय चरण वित्तीय पूंजीवाद द्वारा भारत से अर्जित की गई पूंजी का पुन: भारत में ही निवेश किया गया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल की भू-राजस्व नीति ने एक तरफ ग्रामीण क्षेत्र की आत्मनिर्भरता को समाप्त करके ब्रिटिश नियंत्रण को स्थापित किया तथा गाँवों को कच्चे माल के स्रोत व तैयार माल के बाज़ार की आवश्यकता पूर्ति का साधन माना जाने लगा। वहीं, दूसरी तरफ राजस्व की अधिकाधिक वसूली ने गंगा के स्रोतों को सुखाकर टेम्स/थेम्स नदी में उड़ेलने का कार्य किया।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Print