मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ के महत्त्व पर प्रकाश डालिये।
20 Nov, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोलअपनी यथार्थवादी अंतर्वस्तु, हरकत भरी सशक्त नाट्यभाषा, असीम रंगमंचीय संभावनाओं तथा नवीन नाट्य प्रयोगों के कारण हिन्दी नाटक की विकासयात्रा में मोहन राकेश के नाटक आधे-अधूरे का ऐतिहासिक महत्त्व है।
‘आधे-अधूरे’ में मोहन राकेश ने आज की संत्रासपूर्ण परिस्थितियों की कटु सम्भावनाओं का संकेत दिया है। स्त्री-पुरुष के लगाव व तनाव तथा पारिवारिक विघटन की यह कथा अपने में अधूरे मनुष्य की काल्पनिक पूर्णता की खोज की महत्त्वाकांक्षा की यातना को उजागर करती है। महेन्द्र और सावित्री अपना आधा-अधूरा जीवन जीते रहने के लिये अभिशप्त हैं। मध्यवर्गीय जीवन में आने वाली शुष्क और विनाशकारी रिक्तता को उभारने वाला यह नाटक मनुष्य के खोखलेपन, संबंधों के सतहीपन तथा जीवन-आदर्शों व आस्थाओं के लड़खड़ाते मानदण्डों को सजीव रूप से प्रस्तुत करता है।
पात्रों की योजना में भी मोहन राकेश ने नया प्रयोग किया है। एक ही पुरुष से अत्यंत सामान्य परिवर्तनों के साथ चार भूमिकाएँ करवा ली गई हैं। राकेश के अन्य नाटकों की तरह इसमें भी भरपूर रंग संकेत दिये गए हैं। मंच प्रस्तुतीकरण संबंधी संकेत भी कथ्य की मानसिकता के साथ प्रत्यक्ष रूप से सीधे जुड़े हुए हैं। बीज-शब्दों से युक्त हरकत भरी नाट्यभाषा इसकी रंगमंचीय क्षमता में अभिवृद्धि करती है।
कुल मिलाकर आधे-अधूरे का महत्त्व इस बात में है कि उसने हिन्दी नाटक को यथार्थबोध से जोड़ते हुए वास्तविक अर्थ में समसामयिक युग का प्रतिबिम्ब बनाने का कार्य किया तथा नाटक एवं रंगमंच के बीच की दूरी को पूर्णतया समाप्त कर दिया।