मार्क्सवादी प्रभाव के आलोक में निराला की प्रगति-चेतना पर विचार कीजिये।
19 Oct, 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यनिराला के काव्य-विकास को सामान्यत: तीन चरणों में विभक्त किया जाता है। प्रथम चरण 1920 से 1936, द्वितीय चरण 1936 से 1950 तथा तृतीय चरण 1950 से 1961 ई. तक। इनमें द्वितीय चरण की कविताओं में निराला में प्रगतिशील चेतना दिखाई देती है। इस चरण की कविताओं की सर्वप्रमुख विशेषता यथार्थवाद है।
‘कुकुरमुत्ता’ (प्रथम संस्करण), ‘अजिमा’, ‘नये पत्ते’ कविताओं में जो व्यंग्य दिखाई देता है उनके भीतर निराला के सामाजिक यथार्थ का गहरा बोध छिपा हुआ है। ‘कुकुरमुत्ता’ में तो व्यंग्य की दोहरी धार है, उसमें एक ओर पूंजीपति वर्ग पर व्यंग्य है तो दूसरी ओर संकीर्ण प्रगतिशील दृष्टि पर। निराला की प्रगतिशील चेतना ‘नये पत्ते’ की ‘कुत्ता भौंकने लगा’, ‘झींगुर डरकर बोला’, ‘उछाल मारता चला गया’, ‘महगू महँगा रहा’ जैसी कविताओं में अपने चरम रूप में अभिव्यक्त हुई है।
(नोट: विस्तार के लिये ‘काव्य-परिचय’ में ‘अणिमा’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बेला’ तथा ‘नये पत्ते’ का विश्लेषण देखें।)
निराला की उपर्युक्त प्रगतिशील चेतना को कई आलोचकों ने सीधे-सीधे मार्क्सवादी प्रभाव से जोड़कर देखा है। लेकिन ध्यातव्य है उनकी 1936 से पहले की कई कविताओं में भी प्रगतिशील दृष्टि मौजूद है। ‘विधवा’, ‘भिक्षुक’, ‘तोड़ती पत्थर’ आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। अत: यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि बाद में उन पर मार्क्सवादी चिंतन का कुछ प्रभाव पड़ा होगा, लेकिन उनकी प्रगतिशील चेतना से युक्त काव्य को मार्क्सवाद का परिणाम मानना उचित नहीं है।