समकालीन हिंदी उपन्यास में ‘स्त्री-विमर्श’ की उपस्थिति की पहचान कीजिये।
12 Oct, 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यहिंदी उपन्यास पर स्त्री-विमर्श का गहरा प्रभाव पड़ा है और धीरे-धीरे यह प्रभाव बढ़ता जा रहा है। कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा आदि ने स्त्री-जीवन का प्रामाणिक अंकन प्रारंभ किया था जो बाद के उपन्यासों में और घनीभूत हुआ है। मृदुला गर्ग के उपन्यासों ‘कठगुलाब’, ‘चितकोबरा’ एवं ‘मिलजुल मन’ में स्त्री-मुक्ति चेतना का रचनात्मक अंकन हुआ है। उन्होंने ‘कठगुलाब’ में नारी-मुक्ति विषयक अपने प्रौढ़ चिंतन का परिचय देते हुए नारी शोषण के सभी रूपों और नारी के सामर्थ्य का समुचित चित्रण किया है।
प्रभा खेतान का उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ नारी जीवन की उन छुपी सच्चाइयों का उद्घाटन करता है जो अपनी समस्त विद्रूपता, विकृति और कुत्सा के बावजूद भारतीय समाज का क्रूर यथार्थ है। इस उपन्यास की केंद्रीय पात्रा ‘प्रिया’ मारवाड़ी समाज की घुटन भरी संस्कृति से लेकर कॉर्पोरेट कल्चर तक शोषण का शिकार होती है। परिवार, प्रेम-संबंध, वैवाहिक जीवन आदि प्रत्येक स्तर पर स्त्री किस प्रकार पुरुष शोषण का शिकार होती है, इसका अनावरण लेखिका ने स्तब्धकारी ढंग से किया है।
मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों ‘इदन्नम’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘चाक’ आदि में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को उठाया है। इनमें ‘चाक’ ग्रामीण पृष्ठभूमि में अत्यन्त सशक्त रूप में स्त्री अस्मिता के स्तर को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। ‘चाक’ की ‘रेशम’ विवाह संस्था के बाहर भी ‘गर्भधारण’ का अधिकार चाहती है और ‘सारंग’ पति, पुत्र, सास-ससुर से भरे-पूरे परिवार में होते हुए भी प्रेम करने का अधिकार चाहती है।
चित्रा मुद्गल का ‘आंवा’, मंजुल भगत का ‘अनारो’, नासिरा शर्मा का ‘शाल्मली’, गीतांजलिश्री का ‘तिरोहित’ आदि उपन्यासों में अपने-अपने ढंग से स्त्री-मुक्ति चेतना की सशक्त अभिव्यक्ति दिखाई देती है।
समग्रत: हम कह सकते हैं कि ‘स्त्री-मुक्ति चेतना’ हिंदी उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है जो पुरुष वर्चस्ववाद को तोड़ने का रचनात्मक प्रयत्न कर रही है।