अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 के प्रावधानों को स्पष्ट कीजिये। अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के संदर्भ में इस कानून का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)
11 Oct, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाप्रश्न विच्छेद
• अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 के क्रियान्वयन के संदर्भ में आलोचनात्मक मूल्यांकन करना है। हल करने का दृष्टिकोण • अधिनियम के चर्चा में आने को स्पष्ट करें। • अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख करें। • आलोचना के बिंदुओं की चर्चा करें। • निष्कर्ष दें। |
हाल ही में 30 मार्च, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक ‘भास्कर-गायकवाड़’ मामले की सुनवाई के दौरान एक दलित व्यक्ति की शिकायत को फर्ज़ी बताकर खारिज कर दिया और साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने नए दिशा-निर्देश भी जारी कर दिये जिनके अंतर्गत कहा गया कि ऐसे मामलों की शुरुआती जाँच होने तक किसी सरकारी अधिकारी की तुरंत गिरफ्तारी न की जाए। इसके अलावा अभियुक्त सरकारी कर्मचारी होने पर उसकी गिरफ्तारी के लिये उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति लेनी अनिवार्य होगी तथा अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ्तारी के लिये एसएसपी की सहमति लेनी अनिवार्य होगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 2015 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के उस आँकड़े का उल्लेख किया जिसके अनुसार 15–16% मामलों में ही पुलिस ने रिपोर्ट फाइल की। इस प्रकरण ने अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 को चर्चा में ला दिया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के उत्थान के लिये कई कदम उठाए हैं। इनमें से अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 का मुख्य उद्देश्य दलितों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करना है तथा उनके विरुद्ध होने वाले अत्याचारों व शोषण को रोकना है।
इस अधिनियम की धारा 3(1) में दंडनीय अपराध के संदर्भ में विस्तारपूर्वक बताया गया है। इसके अनुसार अनुसूचित जाति व जनजाति के सदस्यों को ज़बरदस्ती अखाद्य पदार्थ (मल-मूत्र आदि) खिलाना या पिलाना, दलितों की भूमि पर गैर-कानूनी ढ़ंग से कब्ज़ा करना, भीख मांगने के लिये मजबूर करना, बंधुआ मज़दूर बनाना, वोट देने से रोकना, झूठे मुकदमें में फँसाना, महिला सदस्य का बलपूर्वक यौन शोषण करना, बलपूर्वक कपड़े उतारना आदि कुकृत्यों को दंडनीय बनाया गया है।
इस अधिनियम के तहत अत्याचार के अपराधों के लिये दोषी व्यक्ति को छह माह से पाँच वर्ष तक की सज़ा देने का प्रावधान है। धारा 3(2) के तहत कोई भी व्यक्ति जो अनुसूचित जाति व जनजाति का सदस्य नहीं है और इस वर्ग के सदस्य के खिलाफ झूठी गवाही देता है तो मृत्युदंड व आजीवन कारावास की सज़ा है। धारा 4 के अनुसार कोई सरकारी कर्मचारी जो इस विशेष वर्ग से नहीं है और अधिनियम के पालन में लापरवाही करता है तो उसे छह माह से एक वर्ष तक की सज़ा हो सकती है। इसके अतिरिक्त, इस कानून के तहत किये गए अपराधों की जाँच डीएसपी स्तर का पुलिस अधिकारी करेगा।
हाल ही में ऊना और अजमेर में घटित घटनाएँ इस अधिनियम को प्रासंगिक बनाते हैं। परंतु इसके प्रावधान व राजनीतिक दलों द्वारा इसके दुरुपयोग की घटनाएँ इसकी कमियों को भी उजागर करते हैं, जैसे- आजीवन कारावास की सजा, बिना पक्ष रखे शीघ्र गिरफ्तारी, अधिकारियों के लिये कड़े दंड का प्रावधान आदि। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में एक जाति विशेष की सरकार के समय इस अधिनियम का दुरुपयोग किया गया।
स्पष्ट है कि इस अधिनियम के तहत किये गए अपराध सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले तक गैर-जमानती, संज्ञेय तथा अशमनीय थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि इस कानून के कुछ प्रावधानों से कानून का दुरुपयोग हो रहा है। अत: दिशा-निर्देश जारी करके इनमें संशोधन कर दिया गया। लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह कानून की कमी न होकर कानून के क्रियान्वयन के संदर्भ में कमी को प्रदर्शित करता है, जिसका समुचित निराकरण करके ही समाज के सभी पक्षों को संतुष्ट किया जा सकता है।