प्रगतिवादी कविता की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
09 Oct, 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यसन् 1936 ई. में भारत में प्रगतिवादी लेखक संघ की स्थापना एवं लखनऊ में हुए उसके प्रथम सम्मेलन से प्रेरित प्रगतिवादी कविता मार्क्सवादी विचारधारा द्वारा निरूपति जीवन-यथार्थ को केंदीय चेतना के रूप में स्वीकार करने वाली काव्यधारा है। प्रगतिवादी कविता आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों के संघात से निर्मित जीवन-यथार्थ और विशेषकर किसान एवं मजदूर-जीवन के चित्रण को कविता के लिये अनिवार्य मानती है।
वर्ग-संघर्ष को रेखांकित करते हुए शोषण की अमानवीयता का चित्रण प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्ति है। इस संदर्भ में दिनकर की कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
श्वानों को मिलना दूध-भात/भूखे बच्चे चिल्लाते हैं/माँ की गोदी से चिपक-चिपक/जाड़े की रात बिताते हैं।
जन पक्षधर राजनीतिक चेतना, पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति तीव्र घृणा, शोषितों के प्रति सहानुभूति, व्यवस्था परिवर्तन हेतु क्रांति-चेतना तथा शोषितों की संघर्ष-क्षमता एवं शक्ति में विश्वास इस काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण संवेदनागत प्रवृत्तियाँ हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
मैंने उसको जब-जब देखा लोहा देखा/लोहा जैसे तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा/मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा।
ग्राम्य-प्रकृति का चित्रण तथा प्रेम के गार्हस्थिक रूप की अभिव्यक्ति भी इसकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं।
शिल्प के धरातल पर सामान्य एवं सहज भाषा का प्रयोग, छन्द-विधान में लोकधुनों को महत्त्व, लोकजीवन से बिंबों का चयन, प्रतीकात्मकता का अभाव आदि प्रगतिवादी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ हैं।
कुल मिलाकर ‘प्रगतिवादी कविता’ मार्क्सवादी विचारधारा के अनुरूप कविता में आम मनुष्य की प्रतिष्ठा आम बोलचाल की भाषा में करने वाली काव्यधारा है।