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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    राज्यसभा, लोकसभा में एकल दल के वर्चस्व के कारण अपनी दोयम दर्ज़े की स्थिति से काफी आगे निकल चुकी है और कई बार यह लोकसभा में बहुमत के विरुद्ध प्रतिरोधी शक्ति के रूप में भी उभरी है। उक्त कथन के संदर्भ में राज्यसभा की भूमिका और प्रासंगिकता की चर्चा करें तथा इसे दुष्प्रभावित करने वाले तत्त्वों को समाप्त करने के उपाय सुझाएँ।

    25 Aug, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    उत्तर की रुपरेखा :

    • राज्यसभा का परिचय और अब तक की स्थिति का वर्णन करें।
    • राज्यसभा की भूमिका।
    • राज्यसभा की वर्तमान प्रासंगिकता।
    • अवरोधक तत्त्वों को उल्लिखित करते हुए उपायों का वर्णन करें।
    • निष्कर्ष।

    राज्यसभा भारतीय लोकतंत्र की ऊपरी प्रतिनिधि सभा है। राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप में हुआ है जो लोकसभा द्वारा पास किये गए प्रस्तावों की पुनरीक्षा करे। हालाँकि लम्बे समय तक दोनों सदनों में एक ही दल के वर्चस्व के कारण जहाँ राज्यसभा आमतौर पर दोयम दर्जे की भूमिका निभा रही थी, वहीं जनता दल (1977), राजग दल (1998-2004) और वर्तमान बहुमत वाली सरकार के प्रति प्रतिरोधी शक्ति के रूप में उभरी है। संभवतः ये दोनों ही स्थितियाँ अपने चरम पर एक विकासशील लोकतंत्र की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।

    राज्यसभा की भूमिकाः राज्यसभा के गठन हेतु संविधान सभा के तार्किक वाद में राज्यसभा की निम्न भूमिकाएँ वर्णित की गई थीं:

    • मूल्यांकनपरक और चिंतनशील सभा
    • सरकार के उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करना
    • भारत में उपस्थित विभिन्नता के आधिकारिक मंच के रूप में 
    • राष्ट्र की व्यापक अन्वीक्षण करने वाली सभा

    उल्लेखनीय है कि वर्तमान में राज्यसभा की भूमिका पर प्रश्न उठाए गए हैं। कई बार सरकार के उत्तरदायित्व के सुनिश्चितीकरण व मूल्यांकनपरक भूमिका से इतर राज्यसभा मात्र विरोध का एक मंच प्रतीत हुई, जैसे मातृत्व अधिनियम पर बहस को पूरी न होने देना इत्यादि। राज्यसभा में उपस्थित विविधता केवल राजनैतिक विविधता रह गई जो कि मुख्यतः सांस्कृतिक, लैंगिक व स्थानीय होनी चाहिये थी। परंतु इन सबके अतिरिक्त, भूमि अधिग्रहण बिल 2015, आतंकवाद बिल 2002 पर राज्यसभा की भूमिका सराहनीय रही है। हालाँकि लोकसभा (प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व सभा) के महत्त्वपूर्ण अधिनियमों का बिना मूल्यांकन व चिंतन किये मात्र व्यवधान डाले जाने के कारण राज्यसभा की प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा हुआ है।

    प्रासंगिकताः 

    • राज्य सभा, लोकसभा की निरंकुशता को नियंत्रित करने के लिये आवश्यक है। यह बहुमत दल के कार्यों को कानून के शासन के अंतर्गत रखने में उपयोगी है।
    • जनहित को सुनिश्चित करने हेतु बिलों के प्रस्तुतीकरण के साथ उनके मूल्यांकन हेतु राज्यसभा का होना प्रासंगिक है।
    • नागरिकों के अधिकारों, अल्पसंख्यकों तथा अन्य की विवेकपूर्ण व तर्कशील आवाज उठाने के एक मंच के रूप में राज्यसभा की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता है।
    • राज्यसभा की प्रासंगिकता व भूमिका को तार्किक बनाने हेतु राज्यसभा के चुनावों में होने वाले भ्रष्टाचार, योग्य प्रतिनिधियों की बजाय पार्टी के शीर्ष नेताओं को चुनना इत्यादि जैसे तत्त्वों  को दूर करना आवश्यक है जिसके लिये निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं।

    आवश्यक उपायः

    • भ्रष्टाचार संबंधी गतिविधियों को सीमित करने हेतु नियमों का परिपालन व दोषियों के ख़िलाफ त्वरित कार्यवाही सुनिश्चित करना आवश्यक है।
    • राज्यसभा मूल्यांकनकर्त्ता व चिंतनशील मंच है। अतः देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए दलों को राजनैतिक लाभ से इतर योग्य व्यक्तियों का चुनाव करना चाहिये।
    • अल्पसंख्यकों, महिलाओं, भाषायी, धार्मिक व नृजातीय विविधता के साथ-साथ उत्तर-पूर्व जम्मू-कश्मीर, ग्रामीण व शहरी निर्धनों इत्यादि का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिये।

    निष्कर्षतः भारतीय संविधान के ऊपरी सदन की कमियों को दूर करके राज्यसभा की भूमिका को चरितार्थ किया जा सकता है जो भारतीय लोकतंत्र को अधिक समावेशी, सहभागितापूर्ण व विकासशील पथ पर अग्रसारित करेगा।

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