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प्रश्न :
द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारकों की चर्चा कीजिये।
24 Sep, 2019 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहासउत्तर :
प्रश्न विच्छेद
• कथन द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारकों की चर्चा से संबंधित है।
हल करने का दृष्टिकोण
• द्वितीय नगरीकरण के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये।
• द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारकों का उल्लेख कीजिये।
• उचित निष्कर्ष लिखिये।
सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर 1900 ईसा-पूर्व के आस-पास विलुप्त हो गए और तब से लगभग 1400 वर्षों तक भारत में कोई शहर नहीं बस पाया। ईसा-पूर्व लगभग पाँचवीं सदी में मध्य-गंगा के मैदान में नगरों के प्रकट होने के साथ ही द्वितीय नगरीकरण की शुरुआत हुई। इसके पीछे भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कारकों का पारस्परिक प्रभाव उत्तरदायी रहा है। 300 ईसा-पूर्व तक नगरीकरण का पूर्ण स्वरूप दिखाई पड़ने लगता है।
द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारक निम्नलिखित हैं-
- मध्य गंगा घाटी के वर्षा पोषित जंगलों से आच्छादित, कड़ी मिट्टी वाले क्षेत्रों की सफाई, खेती और बस्ती को उपयुक्त बनाने में लोहे का बड़ा लाभ मिला। लोहार लोहे के औज़ारों को ठोस बनाना जानते थे जिससे शिल्पकर्म एवं कृषिकर्म के लिये उपयुक्त औज़ारों की सुलभता सुनिश्चित हो सकती थी।
- समुन्नत खाद्य उत्पादक अर्थव्यवस्था मध्यगंगा की जलोढ़ मिट्टी पर सबसे पहले फैलती हुई दिखाई देती है जिससे न केवल उत्पादकों बल्कि शिल्प एवं व्यापार-वाणिज्य क्षेत्र से जुड़े लोगों का भरण-पोषण भी संभव हुआ जो नगरीकरण के लिये काफी अहम है।
- इस प्रकार की अर्थव्यवस्था से करों की नियमित वसूली एवं लम्बे समय तक सेना का रख-रखाव संभव हुआ जिससे बड़े-बड़े जनपद राज्य बनकर टिक सकते थे। ऐसे राज्य शिल्प एवं व्यापार-वाणिज्य जैसी गतिविधियों के लिये उचित माहौल उपलब्ध करा पाने में सक्षम थे।
- बड़े राज्यों के उदय से सभा एवं समिति जैसी कबायली संस्थाएँ अपने कबायली स्वरूप एवं अन्य व्यावहारिक कारणों से प्रासंगिक नहीं रह पाईं इनकी जगह पर परिषद नाम की छोटी सी समिति बनी जिसमें ब्राह्मण ही सदस्य होते थे। हालाँकि, गणतांत्रिक राज्यों में सभाओं का अस्तित्व कायम रहा।
उपर्युक्त वर्णित व्यवस्था को बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था रची गई जिसमें प्रत्येक वर्ण के कर्तव्य को स्पष्ट रीति से निर्धारित कर दिया गया।
वर्ण व्यवस्था के अनुसार शासकों एवं योद्धाओं को क्षत्रिय, पुरोहितों और शिक्षकों को ब्राह्मण, किसानों और कर दाताओं को वैश्य तथा श्रमिकों के रूप में वर्णित तीनों वर्णों की सेवा करने वाले को शूद्र की संज्ञा दी गई।
निष्कर्षत: छठी शताब्दी ईसा-पूर्व महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों का काल साबित हुआ। इस दौर में कृषि, शिल्प, व्यापार एवं वाणिज्य सभी स्तरों पर अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला। अत: परिवर्तनों के पारस्परिक प्रभावों ने ही एक लम्बी अवधि के बाद नगरीकरण को पुन: संभव बनाया।
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