भारतेन्दु के ‘अंधेर नगरी’ नाटक की समकालिकता। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 ग)
18 Nov, 2017 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यभारतेन्दु के नाटक अपनी प्रासंगिकता व समकालिकता के कारण एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनका ‘अंधेर नगरी’ नाटक भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है। नाटक, कथानक, कथा-पात्रों की परिकल्पना, संवादों की बुनावट में समकालिकता के इस तत्त्व को भली-भाँति देखा जा सकता है।
अंधेर नगरी में राज्य व्यवस्था का जो चरित्र प्रस्तुत किया गया है, वह आज भी उतना ही सच नज़र आ रहा है जितना भारतेन्दु के समय में। मनुष्य की पहचान आज पहले से भी ज़्यादा इसके पैसे से नापी जाती है। मनुष्य की बौद्धिकता और कौशल, ईमानदारी और कर्मठता का कोई मूल्य नहीं।
इसी प्रकार भारतेन्दु जी ने आम आदमी पर टैक्स के भार को दिखाया है, आज के संदर्भ में तो यह समस्या और भी गंभीर होती जा रही है। कर की बढ़ती दरें, करों की बढ़ती संख्या, वसूलने का कठोर तरीका आज की राजस्व प्रणाली की एक कड़वी सच्चाई है।
नाटक में नौकरशाही की असंवेदनशीलता, अकर्मण्यता व उदासीनता को मुख्य रूप से रेखांकित किया गया है। नौकरशाही से संबंधित ये सारी समस्याएँ आज की सच्चाई अधिक कठोर रूप में है। भारतेन्दु ने नौकरशाही पर ये जो व्यंग्य कसा है, वह आज भी सच है-
"चना हाकिम सब जो खाते
सब पर दूना टिकस लगाते"
आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली में नेताओं आदि की अयोग्यता व मूर्खता एक कड़वी सच्चाई है। इसी प्रकार, इनके पास शक्ति तो है किंतु बुद्धि और विवेक का अभाव है। इस प्रवृत्ति को नाटक में प्रधान रूप से उभारा गया है-
"भीतर स्वाहा बाहर सादे
राज करहिं अगले अरू प्यादे"
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि अंधेर नगरी समसामयिक संदर्भों का जीवंत नाटक है। इसका संबंध ब्रिटिश शासक वर्ग से ही नहीं है। नाटक में व्यक्त यथार्थ सीमित नहीं है, वह व्यापक चेतना और गतिशील यथार्थ का वाहक है।