सूरदास की कविता के आधार पर उनकी लोकचेतना पर प्रकाश डालिये। (2015 प्रश्नपत्र 6 b)
23 Jan, 2018 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यसूर के काव्य के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण विवाद यह है कि यह काव्य सामाजिक दायित्वों के प्रति जवाबदेह है या नहीं। आचार्य शुक्ल जैसे समीक्षकों ने यह घोषित किया कि सूर का काव्य ‘लोकमंगल की साध्यावस्था’ का काव्य है जो समाज व उनकी समस्याओं से सीधा जुड़ा हुआ नहीं है।
सामान्य तौर पर सूर के काव्य का विश्लेषण करें तो शुक्ल का यह आक्षेप उचित प्रतीत होता है, किंतु सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषित करने पर यह नज़र आता है कि सूर के काव्य में लोकचेतना कई स्तरों पर दिखाई देती है।
सूर की लोकचेतना का पहला स्तर वहाँ दिखाई देता है, जहाँ वे शहरी जीवन की कृत्रिमता व जटिलता पर चोट करते हैं-
मथुरा काजर की कोठरि
जे आवहिं ते कारे
सूर ने नारी मुक्ति को अपने काव्य में स्थान दिया। सूर की गोपियाँ सामाजिक वर्जनाओं से दूर कृष्ण के साथ प्रणय लीला कर रही हैं। सूर की गोपियाँ अधिक तार्किक भी हैं जो ऊद्यो को वाद-विवाद में पराजित कर देती हैं।
सूर ने अपने समय की शोषकपूर्ण सामंतवादी कर प्रणाली को किसान व प्रजाजन की मूल समस्या के रूप में देखा-
"सूरदास की यही बीनती
दस्तक की जै साफ"
सूर का काव्य हिंदी गोचारण परंपरा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। सूर ने गोचारण अर्थव्यवस्था की अनेक जठिलताओं का प्रतीकात्मक अंकन अपनी कई कविताओं में किया है-
"लरि-लरि झगरि भूमि कछ पाई जस अवजस बितई"
सूरदास की कविता सामंतवादी वातावरण में सामाजिक समानता का भाव भी स्थापित करती है। सूर ने कृष्ण और ग्वालों के समतामूलक संबंध के माध्यम से वर्गीय समानता का भाव स्थापित किया है-
"जाति-पाति हमसे बड़ नाहि
नाही बरसत तुम्हारी छैंया"
स्पष्ट है कि सूर के काव्य में सामाजिक पक्ष चाहे प्रमुखता से व्यक्त न हुआ हो किंतु प्रतीकात्मक स्तर पर सामाजिक चेतना यहाँ लगातार उपस्थित है।