संत साहित्य की विशेषताएँ। (2015 प्रश्नपत्र , 1e)
19 Jan, 2018 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य‘निर्गुण ज्ञानाश्रयी काव्यधारा’ या ‘संत काव्यधारा’ भक्तिकाल की आरंभिक काव्यधारा है। इस काव्यधारा की प्रमुख ख्याति सामाजिक विषमताओं के प्रति ज़ोरदार विद्रोह करने वाली काव्यधारा के रूप में है।
संत साहित्य संवेदना के स्तर पर कई विशिष्टताओं से युक्त है। इस धारा की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसका दार्शनिक आधार अनिश्चित है। इन संतों पर नाथों के हठयोग, सूफियों के (तसत्वुफ) व वैष्णवों के प्रपत्तिवाद का प्रभाव दिखाई देता है-
"लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।"
संत कवियों का ब्रह्म निर्गुण, निराकार व अमूर्त है। यहाँ निर्गुण का अर्थ गुणहीन नहीं है, बल्कि गुणातीत है-
"दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना।।"
चूँकि, संत काव्य में ब्रह्म निर्गुण है जिसे जानने के लिये गुरु का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। गुरु को ईश्वर से ऊँचा स्थान दिया गया है क्योंकि ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग दिखाने वाला गुरु ही है-
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।"
कबीर व अन्य संत कवियों ने अपने व्यंग्य प्रहारों से धार्मिक रूढ़िवादिता व सामाजिक असमानताओं पर चोट की। यही दृष्टि उन्हें क्रांतिकारी संतों की ख्याति प्रदान करती है-
"जाति-पांति पूछे नहि कोई।
हरि को भजे सो हरि का होई।।"
संवेदना की भाँति शिल्प के स्तर पर भी संत काव्य क्रांतिकारी व परिवर्तनशील मानसिकता का प्रतीक है। भाषा का ही उदाहरण लें। चूँकि, संत कवि घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे इसलिये उनकी भाषा में भिन्न-भिन्न स्थानों के शब्द जुड़ गए हैं। ऐसी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा गया है।
हठयोग के प्रभाव के कारण इनकी भाषा में उलटबासियों का प्रयोग हुआ है। ये (अन्तस्साधनात्मक) अनुभूतियों को व्यक्त करने वाली प्रतीकात्मक उक्तियाँ हैं-
"बरसै कंबल भीजै पानी।"
संतों का सारा साहित्य मुक्तकों के रूप में उपलब्ध है। जिस अमूर्त की चर्चा उन्होंने की और जिन अन्तः साधनात्मक अनुभूतियों को वे अभिव्यक्त करना चाहते थे, उनके लिये मुक्तक शैली ही उपयुक्त थी।