उत्तर :
संस्कृत के सरलीकरण की जो प्रक्रिया पालि से प्रारंभ हुई थी वह अपभ्रंश में आकर हिंदी के निकट आने लगी और अवहट्ट में इसके विकास की गति और अधिक तीव्र हो गई। इसी संदर्भ में अवहट्ट की कई व्याकरणिक विशेषताएँ इस प्रकार उल्लिखित की जा सकती हैं-
- संज्ञा व कारक व्यवस्था
⇒ सभी प्रतिपादिक ‘स्वरांत’ और ‘अकारांत’ होने लगे।
⇒ निर्विभक्तिक प्रयोगों की संख्या बढ़ गई।
⇒ स्वतंत्र रूप से प्ररसर्गों का प्रयोग होने लगा।
⇒ ‘हि’ परसर्ग का प्रयोग अवहट्ट की प्रमुख विशेषता है।
- लिंग संरचनाः अपभ्रंश की भाँति अवहट्ट में भी दो ही लिंग हैं- पुल्लिंग और स्त्रीलिंग। संस्कृत के नपुंसकलिंग को अपभ्रंश ने ही अस्वीकार करना प्रारंभ कर दिया था। अवहट्ट में भी यही प्रवृत्ति रही।
- वचन व्यवस्थाः अपभ्रंश में संस्कृत के तीन वचनों के स्थान पर दो वचनों के प्रयोग की परंपरा का आरंभ हो गया था। इस परिवर्तन में द्विवचन का लोप हो गया था। अवहट्ट में सरलीकरण की यह परंपरा और आगे बढ़ी तथा बहुवचन के बहुत से शब्द एकवचन के रूप में प्रयुक्त होने लगे।
- सर्वनाम व्यवस्थाः सर्वनामों के क्षेत्र में अवहट्ट में कई नए प्रयोग देखने को मिलते हैं-
⇒ उत्तम पुरुषः मैं, मेरा
⇒ मध्यम पुरुषः तुम, तुम्हार, तोहार
⇒ अन्य पुरुषः वह, उन्ह
- विशेषणः अवहट्ट में कृदंतीय विशेषणों का विकास तीव्र गति से होने लगा। इनकी विशेषता यह है कि ये विशेष्य के लिंग-वचन के अनुसार परिवर्तित होते हैं। ‘संख्यावाचक’ तथा सार्वनामिक विशेषण आधुनिक हिंदी के काफी निकट दिखाई देते हैं।
- क्रिया संरचनाः संस्कृत की तिडन्त क्रिया के स्थान पर ‘कृदंत क्रिया’ रूप यहाँ प्रधान रूप से दिखाई देता है। अवहट्ट के क्रिया रूप आधुनिक हिंदी की बोलियों से काफी मिलते हैं।
- काल रचनाः
⇒ वर्तमान काल → जात, करत (त - रूप)
⇒ भूतकाल → चलल, गइल (ल - रूप)
⇒ भविष्य काल → खाइब, जाइब (ब - रूप)