"गोदान" तक आते-आते प्रेमचंद का आदर्शवाद से पूरी तरह मोहभंग हो जाता है। कथन का परीक्षण कीजिये।
04 Jan, 2018 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यमहाकाव्यात्मक उपन्यास ‘गोदान’ में किसान शोषण की जो मार्मिक कहानी प्रेमचंद ने प्रस्तुत की, तब यह कहा गया कि प्रेमचंद ने आदर्शवाद का चोला पूरी तरह उतारकर फेंक दिया है। इस मत के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं-
उपन्यास के अंत तक होरी की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता। गाय पाने की इच्छा से होरी का जो संघर्ष प्रारंभ हुआ था वह अंत तक बना रहा। जबकि ‘सेवा सदन’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘गबन’ आदि उपन्यासों में प्रेमचंद अपनी ‘आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी’ दृष्टि अपनाते हुए अंत में सब ठीक कर देते हैं।
शोषण तंत्र इतना मज़बूत दिखाया गया है कि अदम्य जिजीविषा रखने वाला और जीवन भर संघर्ष करने वाला होरी भी अंततः इसके जाल में फँसकर दम तोड़ देता है। उसकी मौत आदर्शवाद की समाप्ति की घोषणा है और यथार्थवाद का प्रस्थान बिन्दु है। विजयदेव नारायण साही ने कहा भी है- ‘गोदान’ में प्रेमचंद की प्रकाश अभ्यस्त आँखें हिम्मत करके अंधकार देखने की कोशिश कर रही हैं।"
होरी जीवन भर कठिन संघर्ष करता है, किंतु तब भी उसे वह सब हासिल नहीं होता जो नैतिक रूप से मिलना चाहिये। उपन्यास के अंत से पहले वह पराजय बोध से भर जाता है।
तमाम उम्मीदों व आकांक्षाओं के बावजूद गोदान का अंत वह नहीं होता जो होरी चाहता है। कारण यह है कि शोषण की व्यवस्था इतनी जटिल व मज़बूत है कि होरी जैसा किसान उसके सामने लाचार होकर दम तोड़ देता है।
"क्या करें, पैसे नहीं हैं नहीं तो किसी डॉक्टर को बुलाती- यही वह बिन्दु है जहाँ प्रेमचंद ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का अतिक्रमण करते हैं।
इतना होने पर भी गोदान का यथार्थवाद निरापद नहीं है और यह कहना भी पूर्ण रूप से सत्य नहीं है कि गोदान तक आते-आते आदर्शवाद से मोह पूरी तरह छूट गया है। रचना में कई स्थानों पर प्रेमचंद का आदर्शवाद झलक ज़रूर जाता है मिस मालती का हृदय परिवर्तन, गोबर का हृदय परिवर्तन व मि. खन्ना का हृदय परिवर्तन इसी प्रकार के उदाहरण हैं।