जगदीश चंद्र माथुर का नाट्य शिल्प। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5c)
30 Dec, 2017 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यमाथुर हिन्दी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण नाटककार एवं एकांकीकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने अपने शैल्पिक प्रयोगों के माध्यम से हिन्दी रंगमंच व नाट्य परंपरा को एक बार पुनः जोड़ दिया। इसी संदर्भ में उनकी शिल्पगत विशेषताओं को जानना अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
इनके नाटकों में कथावस्तु सुसंगठित और प्रभावशाली हैं। इनका काव्यत्व प्रसाद की तरह नाटकों पर हावी नहीं होता, बल्कि यह कथावस्तु, नाट्य-स्थितियों और रचनातंत्र के भीतर से निकलता है। चरित्र-चित्रण में माथुर ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर चरित्रों को प्रभावशाली बनाया है।
रंगमंचीयता की दृष्टि से देखें तो यह कहा जा सकता है कि माथुर ने इसका विशेष ध्यान रखा है। ‘कोणार्क’ नाटक का ही उदाहरण लें, तो इस नाटक की भाषा और ‘संवाद-योजना’ रंगमंच के अनुकूल है। इसी प्रकार ध्वनि, वेशभूषा आदि से संबंधित रंग-निर्देश पर्याप्त व यथास्थान हैं- "झीने अंधकार में कोणार्क के खंडहर की हल्की झलक दीख पड़ती है।"
‘पहला राजा’, ‘शारदीया’, ‘दशरथ नंदन’ आदि नाटकों के आधार पर एक और जो शैल्पिक विशेषता उभरकर सामने आती है, वह यह है कि इन्होंने कठिन दृश्यों से संबंधित अभिनय हेतु पर्याप्त सुझाव भी दिये हैं।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी शिल्पगत विशेषताओं के आधार पर इन्होंने हिन्दी नाटक को एक नई दिशा दी। प्रसाद युग में हिन्दी नाटक रंगमंच से दूर चला गया था, उसे पुनः जगदीश चंद्र माथुर ने जोड़ा।