उत्तर :
संत साहित्य या ज्ञानमार्गी शाखा भक्तिकालीन साहित्य की अत्यंत महत्त्वपूर्ण साहित्य धारा है। इस धारा में कबीर, मीरा रैदास, मलूकदास आदि प्रमुख संत कवि हैं। इस धारा की संवेदना व शिल्प के स्तर पर एक बड़ी देन है, जिसे बिन्दुवार इस प्रकार उल्लिखित किया जा सकता है-
- संवेदना के स्तर पर देखें तो इन संत कवियों का बड़ा महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि इन्होंने तत्कालीन साहित्य को समाज से जोड़ा। कबीर आदि संतों ने तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक समस्याओं पर करारी चोट की-
"कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय
ता चढ़े मुल्ला बाँग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय"
- भक्तिकाल का समय दो संस्कृतियों व धर्मों के टकराव का समय था। संत कवियों ने अपने कवि धर्म का पालन करते हुए अपनी कविताओं के माध्यम से सांस्कृतिक समन्वय व भाईचारे की भावना को बढ़ावा दिया-
"जाति-पांति पूछे न कोई
हरि भजि सो हरि का होई"
- संत कवियों का महत्त्व इस बात में भी है कि इन्होंने अंधविश्वास व धार्मिक रूढ़िवादिता में फँसे समाज को वैज्ञानिक व तार्किक दृष्टिकोण से परिचित करवाया। यह दृष्टिकोण इन कवियों को आधुनिकता व मानववाद जैसी समकालीन अवधारणाओं के निकट ले जाता है-
"पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार
ताते तो चाकी भली, पीस खाए संसार"
- संत कवियों ने भाषा के लोकतंत्रीकरण का मार्ग अपनाकर समाज व साहित्य दोनों की सेवा की। कबीर ने भाषायी अभिजात्यवाद का विरोध करते हुए कहा कि "संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर।" इसी प्रकार, इन संत कवियों ने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जो चलती हुई आमजन की भाषा थी, जिसमें सभी स्थानीय बोलियों के शब्दों का समावेश था। ऐसी भाषा चाहे पंचमेल खिचड़ी कही गई हो, किंतु यह आमजन हेतु अधिक सहज व सरल थी।
उल्लेखनीय है कि संत साहित्य का महत्त्व देशकाल की सीमाओं से परे है। ऐसा लगता है कि कबीरदास आज की जातिवादी व सांप्रदायिकतावादी प्रवृतियों पर खीज से भरे हैं।