खुसरो की काव्य भाषा। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1d)
13 Dec, 2017 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यहिन्दी भाषा के विकास में खुसरो का अद्वितीय योगदान है। यह योगदान खड़ी बोली व ब्रज भाषा के साथ फारसी के संदर्भ में भी उल्लिखित किया जा सकता है। इसी संदर्भ में खुसरो की भाषायी विशिष्टता व प्रयोगात्मकता को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है
खुसरो की भाषा मुख्यतः दो प्रकार की है। एक ठेठ ब्रज और दूसरी ठेठ खड़ी। इसी के साथ कई जगह खड़ी और ब्रज का मिश्रित रूप भी दिखाई देता है-
"खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीऊ को, दोऊ भए एक रंग।।"
खुसरो ने अपनी पहेलियों, मुकरियों में खड़ी बोली के जिस रूप का प्रयोग किया है वह वास्तव में आश्चर्यजनक है। आचार्य शुक्ल ने इस पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि ‘क्या खड़ी बोली इस समय तक घिसकर इतनी चिकनी हो गई थी’-
"एक थाल मोती से भरा, सबके सिर औंधा धरा
चारों ओर वह थाल फिरे मोती उससे एक न गिरे"
प्रयोगशीलता खुसरो की एक अन्य भाषायी विशिष्टता है। प्रयोगशीलता का एक उदाहरण यह है कि उन्होंने एक ही कविता में शुद्ध फारसी व शुद्ध ब्रज का अद्भुत समन्वय कर दिया है-
"जे हाल मिसकीं मकुल तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ
किताबे हिज्रां न दारम ऐ जां, न लेहु काहे लगाय छतियाँ"
इसी प्रकार, खुसरो की भाषा का मूल्यांकन गुणों व प्रवाह के आधार पर किया जाए तो यह नज़र आता है कि प्रसाद व माधुर्य गुणों की प्रधानता है। साथ ही, बोधगम्यता व सहजता के साथ चित्रात्मकता एवं बिंबात्मकता के गुण भी समाविष्ट हैं।
अंत में, खुसरो के भाषायी प्रयोगों व विशिष्टताओं का ही परिणाम था कि आगे चलकर ब्रज जहाँ भक्तिकाल एवं रीतिकाल में, वहीं खड़ी बोली आधुनिक काल में काव्य भाषा के शिखर तक पहुँची।