विद्यापति की कविता की प्रमुख विशेषताएँ। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 क)
15 Nov, 2017 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्यविद्यापति आदिकाल के मैथिल कवि हैं। इनकी प्रतिष्ठा का आधार कीर्तिलता, कीर्तिपताका व पदावली है। इन रचनाओं के आधार पर इनकी कविता की संवेदनात्मक व शिल्पगत विशेषताओं को कई आयामों के स्तर पर देखा जा सकता है।
कीर्तिलता में राजा कीर्ति सिंह की योग्यता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रंथ में इनका इतिहास बोध प्रशंसनीय है, इन्होंने प्रायः ऐतिहासिकता का पालन किया है।
पदावली इनकी प्रतिष्ठा का मूल आधार है। यह हिन्दी में कृष्ण भक्ति परंपरा की प्रथम रचना मानी जाती है, किंतु वास्तव में यह गीतगोविंद की परंपरा की ही अगली कड़ी है। इस रचना में ईश्वर वंदना, राधा-कृष्ण प्रेम व अन्य विषयों का समावेश है। रचना का प्रधान विषय संयोग शृंगार है, इसी कारण समीक्षकों में यह विवाद छिड़ गया कि विद्यापति भक्त कवि है या शृंगारी कवि। शुक्ल आदि ने इनकी भक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए पदावली के अश्लील वर्णनों पर आक्षेप किया है और कहा कि "आध्यात्मिक रंग के चश्मे अधिक सस्ते हो गए हैं।"
पदावली वस्तुतः भक्ति व शृंगार का समन्वित रूप है जहाँ राधा आत्मा व कृष्ण परमात्मा के प्रतीक हैं। पदावली के माध्यम से विद्यापति ने कृष्ण के विशिष्ट रूप को हिन्दी में प्रतिस्थापित किया।
विशिष्ट रूप में इसलिये कि यहाँ शील व शक्ति पर शृंगार हावी है। कृष्ण को शृंगार व सुंदरता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है- "ए सखि देखल एक अपरूप"। सुन्दरता केवल शारीरिक ही नहीं वाणी में भी है- "माधव बोलत माधुरी बानी।"
शिल्प की दृष्टि से देखें तो विद्यापति के भाषायी प्रयोग उल्लेखनीय हैं। ‘कीर्तिलता’ अवहट्ट भाषा की एक शानदार रचना है जहाँ ‘परसर्गों’ का स्वतंत्र प्रयोग दिखलाई पड़ता है। साथ ही, अवहट्टकालीन सर्वनामों का प्रयोग भी। विद्यापति ने हिन्दी साहित्य में प्रबन्ध की प्रतिष्ठा को स्थापित करने में उल्लेखनीय योगदान दिया।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विद्यापति हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्ति परंपरा की उस महत्त्वपूर्ण कड़ी का हिस्सा हैं जो गीतगोविंद से प्रारंभ होकर धर्मवीर भारती (अंधायुग) तक जाती है।