‘बाँटो और राज करो’ की औपनिवेशक नीति ने ही भारत में सांप्रदायिकता का बीज बोया जो कालांतर में वट वृक्ष बन गया और उसने भारत की सदियों पुरानी समरसता को भंग कर दिया, अंतत: इसी की परिणति देश के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई। चर्चा करें। (250 शब्द)
13 Apr, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास
प्रश्न विच्छेद ♦ सांप्रदायिकता के विकास में ‘फूट डालो और राज करो’ नीति की भूमिका। ♦ सांप्रदायिकता के परिणाम। हल करने का दृष्टिकोण ♦ संक्षिप्त भूमिका लिखें। ♦ सांप्रदायिकता के विकास के लिये ‘पूट डालो और राज करो’ नीति की भूमिका। ♦ सांप्रदायिकता के विकास में अन्य कारणों को बताते हुए इसके परिणाम का उल्लेख करें। ♦ अंत में निष्कर्ष लिखें। |
औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश शासकों ने अपने हितों के लिये सांप्रदायिकता का बीज बोया, जिसे तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों ने उर्वर भूमि प्रदान की, जिसका फल भारत विभाजन के रूप में सामने आया।
वस्तुत: 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों को अपनी सत्ता बचाए रखने के लिये पूट डालो और राज करो की नीति ज़्यादा कारगर लगी। इसके लिये उन्होंने निम्नलिखित स्तरों पर कार्य किया:
इतिहास के सांप्रदायिक इतिहास लेखन कर प्राचीन भारत को हिन्दू काल तथा मध्यकालीन भारत को मुस्लिम भारत में बाँट दिया। इससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि दोनों समुदायों के हित अनिवार्य रूप से एक-दूसरे से टकराते हैं।
सांप्रदायिक मांगों को स्वीकार कर सांप्रदायिक संगठनों को राजनीतिक मज़बूती प्रदान की। जैसे- 1909 में पृथक निवार्चन मंडल स्वीकार कर, 1932 के कम्यूनल अवॉर्ड में जिन्ना की ज़्यादातर सांप्रदायिक मांगों को स्वीकार किया गया।
सांप्रदायकितावादियों को सरकारी संरक्षण और रियायतें प्रदान की गईं।
सांप्रदायिक विचारों के प्रसार करने वाली पत्र-पत्रिकाओं पर कोई कार्यवाई नहीं की गई तथा सांप्रदायिक दंगों को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
उपर्युक्त कारणों के चलते सांप्रदायिकता की शुरुआत हुई लेकिन इसे वट वृक्ष बनाने में अन्य कारणों की भी भूमिका रही है, जैसे-
19वीं शताब्दी में शुरू हुए सामाजिक सुधार आंदोलन। जैसे- बहावी आंदोलन, आर्य समाज द्वारा चलाया गया शुद्धि आंदोलन।
उग्र राष्ट्रवाद, जिसकी अभिव्यक्ति के क्रम में शिवाजी महोत्सव एवं गणपति महोत्सव मनाया गया। क्रांतिकारियों द्वारा महाराणा प्रताप एवं अकबर तथा शिवाजी एवं औरंगज़ेब के मध्य संघर्ष को महिमामंडित करना।
कॉन्ग्रेस द्वारा 1916 के लखनऊ अधिवेशन में पृथक निर्वाचन मंडल को स्वीकार करना। नेहरू रिपोर्ट के माध्यम से इसे रद्द करना, इसके प्रत्युत्तर में ही जिन्ना ने चौदह सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की जो अलगाववाद की दिशा में ठोस कदम था।
उपर्युक्त सभी कारणों का सम्मिलित परिणाम रहा कि द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत अस्तित्व में आया तथा रहमत अली खान ने पाकिस्तान का विचार सामने रखा। जिन्ना ने इस्लाम खतरे में है का नारा दिया तथा 1940 के मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में अलग पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया।
इसी का परिणाम रहा कि भारत में सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत हुई जिसकी चरम अभिव्यक्ति 1946 नोआखली के दंगे में दिखती है। इसने भारत के सर्वधर्म समभाव, जिसकी अभिव्यक्ति अशोक के ‘धम्म’ तथा अकबर के ‘दीन-ए-इलाही’ में हुई, एवं वसुधैव कुटुम्बकम् के माध्यम से चली आ रही सदियों पुरानी समरसता को भंग कर दिया। अंतत: आज़ादी के साथ भारत एवं पाकिस्तान के विभाजन के रूप में फल सामने आया।
निष्कर्षत: कह सकते हैं कि बाँटों और राज करो की नीति ने भले ही सांप्रदायिकता का बीज बोया लेकिन उसे वट वृक्ष बनाने में अन्य परिस्थितियाँ भी ज़िम्मेदार रहीं, जिसकी परिणति देश के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई।