संस्थानों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करना युद्ध के मैदान में अपने कवच को सिर्फ इस आधार पर हटाने जैसा है, क्योंकि यह थोड़ा तंग और असुविधाजनक है। कथन में छिपे निहितार्थों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये।
20 Feb, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाभूमिका:
पिछले कुछ समय से सीबीआई और आरबीआई के साथ-साथ अन्य दूसरी संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करने का आरोप केंद्र सरकार पर लगता रहा है। हालाँकि सत्ताधारी सरकार और स्वायत्त संस्थानों के बीच विवाद नया नहीं है। लेकिन कोशिश होनी चाहिये कि संस्थानों की स्वायत्तता को मजबूती देकर पारदर्शिता बहाल की जाए।
विषय-वस्तु
केंद्र पर संस्थानों की कार्य प्रणाली में दखल देने का आरोप लगता आया है। इस संदर्भ में पहला मामला 2015 में आया, जब गजेन्द्र चौहान को भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान का अध्यक्ष बनाया गया। इस मामले में मनमाने ढंग से नियुक्ति कर संस्थान की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ करने का आरोप सरकार पर लगा था। इसी तरह, केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड भी केंद्र सरकार की वजह से विवादों में रहा।
साथ ही यूजीसी की जगह भारतीय उच्च शिक्षा आयोग, प्रतिष्ठित संस्थानों की सूची में जियो नामक संस्थान को जगह देने का मामला भी सामने आया है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा प्रेस कॉन्प्रेंस के जरिये देश को बताया गया कि चूँकि जजों को ठीक से काम नहीं करने दिया जा रहा इसलिये संविधान और लोकतंत्र खतरे में है। जजों की कमी और उनकी नियुक्ति को लेकर सरकार और कोर्ट के बीच खीचातानी का मामला भी सामने आया है। सरकार द्वारा सीबीआई में मनमाने तरीके से नए निदेशक की नियुक्ति भी सवालों के घेरे में है।
अन्य महत्त्वपूर्ण मामला केंद्रीय बैंक आरबीआई का है जिसमें सरकार अपने उन अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहती थी जिसका आरबीआई ने अब तक इस्तेमाल नहीं किया था। हालाँकि आरबीआई एक्ट, 1934 की धारा 7 केंद्र सरकार को यह विशेषाधिकार देती है कि वह केंद्रीय बैंक के असहमत होने की स्थिति में सार्वजनिक हित को देखते हुए गर्वनर को निर्देशित कर सकती है एवं आरबीआई को उसे मानना बाध्यता होगी। सरकार के इस प्रयास को आरबीआई की स्वायत्तता पर हमले के रूप में देखा जा रहा है।
संस्थानों को स्वायत्तता प्रदान करने के पीछे यह मंशा होती है कि बिना किसी राजनैतिक प्रभाव के इन संस्थाओं को अपने अधिकारों का उपयोग करने का मौका मिले। जब अधिकारों के प्रयोग में स्वतंत्रता होगी तो सिस्टम में पारदर्शिता आएगी और सरकारी संस्थाओं पर लोगों की विश्वसनीयता में वृद्धि होगी। संस्थागत स्वायत्तता से भ्रष्टाचार और किसी भी प्रव्रिया में अनियमितताओं पर लगाम लग सकेगी। परंतु ऐसा तभी संभव होगा जब संस्थाओं के मुखिया अपने कार्य के प्रति निष्ठावान रहते हुए किसी भी राजनैतिक प्रभाव से अप्रभावित रहेंगे।
इस समस्या के हल के रूप में कुछ बातों पर गौर किया जा सकता है। मसलन उच्च संस्थानों के प्रमुखों और सदस्यों की नियुक्ति के प्रावधानों को और मजबूत तथा पारदर्शी बनाया जाए। साथ ही हर संस्थान के अधिकारियों को कार्यकाल की पूरी सुरक्षा दी जाए ताकि वे बिना किसी भय के अपने कर्त्तव्य का निर्वहन कर सकें। साथ ही संस्थाओं की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिये सरकारी दखलअंदाजी में कमी लानी होगी। हर संस्थान को प्रशासनिक और वित्तीय आजादी दी जाए ताकि वे स्वतंत्र रूप से अपने फैसले लें सकें। मौजूदा वक्त में उत्कृष्ट प्रौद्योगिकी की बदौलत संस्थानों में ज्यादा-से-ज्यादा पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकती है। इन सभी के साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि यह स्वायत्तता कहीं अराजक न बन जाए। इसके लिये ऐसे प्रावधानों की भी जरूरत है जो समय-समय पर संस्थानों की निगरानी कर सके।
निष्कर्ष
अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-
आज जरूरत है कि ऐसी नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू करने की, जिससे सार्वजनिक संस्थाओं के कार्यों में पारदर्शिता आए और संस्थाओं पर लोगों के भरोसे को मजबूती मिल सके।