पवन को अपरदन का एक मुख्य कारक माना जाता है। पवन अपरदन को प्रभावित करने वाली दशाओं पर प्रकाश डालते हुए इसके अपरदनात्मक स्थलरूपों की चर्चा करें।
उत्तर :
भूमिका:
पवन का अपरदन संबंधी कार्य प्रमुख रूप से भौतिक या यांत्रिक रूपों में ही संपादित होता है। शुष्क मरुस्थलों में यांत्रिक अपक्षय के कारण चट्टानों के विघटित होने से चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं। इन असंगठित चट्टानों को पवन आसानी से अपरदित कर देती है।
विषय-वस्तु
पवन द्वारा अपरदन का कार्य तीन रूपों यथा अपवाहन, अपघर्षण तथा सन्निघर्षण में संपन्न होता हे। अपवाहन के अंतर्गत यांत्रिक अपक्षय के कारण ढीली तथा असंगठित चट्टानों के ढीले कणों को पवन चट्टानों से अलग करके उड़ा ले जाती है।। अपघर्षण के तहत तीव्र वेग की पवन के साथ रेत तथा धूलकण; जो अपरदनात्मक यंत्र का कार्य करते हैं, पवन मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों को रगड़ कर अपरदित करती है। सन्निघर्षण के तहत शैलकण आपस में रगड़ खाकर यांत्रिक ढंग से टूट जाते हैं।
अपरदनात्मक स्थलरूप
- अपवाहन बेसिन या वात गर्त: पवन द्वारा असंगठित तथा ढीले कणों को उड़ा लिये जाने से निर्मित गर्त को अपवाहन बेसिन कहते हैं। चूंकि इन गर्तों का निर्माण पवन द्वारा होता है अत: इन्हें पवन गर्त भी कहते हैं। सहारा के रेगिस्तान, कालाहारी, मंगोलिया तथा संयुक्त राज्य अमेकिरा के पश्चिमी शुष्क भागों में इस प्रकार के अनेक स्थलरूपों के उदाहरण देखने को मिलते हैं।
- इन्सेलबर्ग: मरुस्थलों में अपव्यय तथा अपरदन के कारण कोमल चट्टानें आसानी से कट जाती है लेकिन कठोर चट्टानों के अवशेष ऊँचे-ऊँचे टीलों के रूप में बच जाता है जिसे इन्सेलबर्ग कहते हैं।
- छत्रक शिला: मरुस्थली भागों में यदि कठोर चट्टानों के रूप में ऊपरी आवरण के नीचे कोमल चट्टाने लम्बवत रूप में मिलती हैं तो उस पर पवन के अपघर्र्षण के प्रभाव से विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। पवन द्वारा चट्टान के निचले भाग में अत्यधिक अपघर्षण द्वारा उसका आधार कटने लगता है, जबकि उसका ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। साथ ही यदि पवन कई दिशाओं में चलती है तो चट्टान का निचला भाग चारों तरफ से अत्यधिक कट जाने के कारण पतला हो जाता है, जबकि ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। इससे एक छतरीनुमा स्थलरूप का निर्माण होता है, जिसे छत्रक शिला कहते हैं। छत्रक शिला को सहारा के रेगिस्तान में गारा कहते हैं।
- भूस्तंभ: शुष्क प्रदेश में जहाँ पर असंगठित तथा कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी चट्टानों का आवरण होता है, वहाँ इस आवरण के कारण नीचे की कोमल चट्टानों का अपरदन नहीं हो पाता। लेकिन नजदीकी चट्टानों के अपरदन के कारण कठोर चट्टानों के आवरण वाला भाग एक स्तंभ के रूप में सतह पर दिखाई देता है जिसे भू-स्तम्भ कहते हैं।
- ज्यूजेन: मरुस्थली भाग में यदि कठोर तथा कोमल शैलों की परतें ऊपर-नीचे एक-दूसरे के समानान्तर होती है तो अपक्षय तथा वायु द्वारा अपरदन के कारण विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। इन स्थलरूपों के ऊपरी भाग पर कठोर चट्टानों का आवरण होता है एवं इनका ऊपरी भाग समतल होता है। इन्हें ज्यूजेन कहते हैं।
- यारडंग: इसकी रचना ज्यूजेन के विपरीत होती है। जब कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत दिशा में मिलते हैं तो पवन कठोर की अपेक्षा मुलायम चट्टान को आसानी से अपरदित करते हुए उड़ा ले जाती है। इन चट्टानों के पार्श्व में पवन के कटाव द्वारा नालियाँ बन जाती हैं जिन्हें यारडंग कहते हैं।
- ड्राइकान्टर: पथरीले मरुस्थलों में सतह पर पड़े चट्टानों पर पवन के अपरदन द्वारा खरोंचे पड़ जाती है। यदि पवन कई दिशाओं से होकर बहती है तो इनकी आकृति चतुष्फलक जैसी हो जाती है। इसमें एक फलक भू-पृष्ठ पर होता है एवं बाकी तीन बाहर की ओर होते हैं जिन्हें ड्राइकान्टर कहते हैं।
- जालीदार शिला: मरुस्थलीय भागों में जब पवनों के सम्मुख विभिन्न संरचना वाली चट्टानें पड़ती है तो कोमल भाग पवन द्वारा उड़ा लिये जाते हैं किन्तु कठोर भाग यथावत बने रहते हैं। इस प्रकार चट्टानों में जाली का निर्माण होता है जिसे जालीदार शैल कहते हैं।
- पुल तथा खिड़की: जालीदार चट्टान में जब पवन अपरदन के कारण छिद्र हो जाती है तो आगे एक लंबे समय के उपरांत अपरदन के कारण यह छिद्र चट्टान के आर-पार हो जाता है जिसे पवन खिड़की कहते हैं। जब इस खिड़की से होकर अपरदन द्वारा चट्टान का धीरे-धीरे नीचे तक कटाव हो जाता है तो एक महराब की आकृति का निर्माण होात है जिसे पुल कहते हैं।
निष्कर्ष
अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-
नोट: आप चाहे तो पवन अपरदन धरा निर्मित स्थलाकृतियों का डायग्राम भी दे सकते हैं।