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प्रश्न :
अमेरिका द्वारा ईरान के साथ न्यूक्लीयर डील से पीछे हटना किस हद तक वैश्विक अर्थव्यवस्था परिदृश्य पर नकारात्मक असर डालेगा। इस परिप्रेक्ष्य में भारत पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा करते हुए ईरान का भारत के लिये सामरिक महत्त्व पर प्रकाश डालें।
30 Jan, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 2 अंतर्राष्ट्रीय संबंधउत्तर :
भूमिका:
14 जुलाई 2015 को 5 + 1 समूह (चीन, फ्रांस, रूस, यूके, यूएस) एवं जर्मनी तथा ईरान के मध्य ईरान के संवेदनशील परमाणु कार्यक्रमों को लेकर एक प्रमाणयोग्य एवं विस्तृत समझौते पर हस्ताक्षर किये गए, जिसे ‘ज्वाइंट कॉप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन’ के नाम से जाना गया।
विषय-वस्तु
विषय वस्तु के पहले भाग में इस समझौते के मुख्य पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे-
इस समझौते के द्वारा एक मज़बूत और प्रभावी फार्मूले को स्थापित किया गया जिसने ईरान द्वारा परमाणु हथियार बनाने हेतु आवश्यक सामग्री को प्राप्त करने के सारे रास्ते को बंद कर दिया। इस समझौते के तहत अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) द्वारा ईरान के नाभिकीय कार्यक्रमों की निगरानी हेतु मज़बूत पर्यवेक्षण की व्यवस्था की गई।
हालाँकि इस समझौते के बाद ईरान की यूरेनियम संवर्द्धन क्षमता, संवर्द्धित यूरेनियम के भंडार, इसके सेंट्रीफ्यूजों की संख्या और अरक रिएक्टर में प्लूटोनियम तैयार करने की क्षमता आदि से जुड़ी अमेरिका सहित वैश्विक चिंताएं समाप्त न हो सकी। इसके लिये अमेरिका ही नहीं बल्कि ईरान को भी एक हद तक ज़िम्मेदार माना जा रहा है। दूसरा पक्ष यह भी है कि ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को बंद कराने के लिये अमेरिका और उसके सहयोगियों की तरफ से जो प्रयास हुए थे उनके केंद्र में विश्व शांति थी या फिर इजरायली सुरक्षा या फिर कुछ और, इस पर भी संशय है।
ईरान के साथ समझौता होने से उस पर से आर्थिक प्रतिबंध हट गए थे और ईरानी अर्थव्यवस्था के लिये दुनिया के बाज़ार खुल गए थे लेकिन अमेरिका द्वारा इस समझौते से पीछे हटने के कारणों में यह बात सामने आई है कि अमेरिका को आशंका थी कि ईरान को बतौर मदद मिलने वाली राशि का इस्तेमाल चरमपंथ को बनवा देने में न हो। साथ ही इसके पीछे अमेरिका फर्स्ट और खासतौर पर ईरान की तेल नब्ज को दबाना भी माना जा रहा है। देखा जाए तो ईरान पर पुन: प्रतिबंधों के ज़रिये अमेरिका दो प्रकार के उद्देश्यों को पूरा करना चाहता है जिसमें पहला है ईरानी प्रशासन पर कड़ा वित्तीय दबाव बनाना ताकि तेहरान अमेरिका के आगे झुक जाएँ एवं दूसरा है मध्य-पूर्व पर हावी होने के लिये ईरान को शक्ति अर्जित करने से रोकना।
विषय-वस्तु के दूसरे भाग में अमेरिका द्वारा ईरान के साथ इस न्यूक्लियर डील से पीछे हटने पर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डालेंगे-
ईरानी परमाणु डील पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का फैसला राष्ट्रपति के रूप में अब तक का सबसे घातक विदेशनीतिक फैसला माना जा रहा है जो ट्रांस अटलांटिक संबंधों पर भी गहरी चोट का काम करेगा। ईरान ने अब तक समझौते की शर्तों का पालन किया है और इस तथ्य की स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय निगरानीकर्ताओं ने बार-बार पुष्टि भी की है। वहीं ट्रंप ने यह आरोप लगाकर समझौता तोड़ा कि ईरान ने दुनिया से छिपकर अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखा। ईरान के साथ न्यूक्लियर डील के टूटने से उन यूरोपीय कंपनियों के लिये मुश्किलें पैदा हो जाएंगी जो समझौते के बाद ईरान के साथ व्यापार शुरू कर चुके हैं। अमेरिका के इस फैसले से रूस, जर्मनी और ब्रिटेन निराश हैं एवं इस स्थिति में संभव है कि अमेरिका के विश्वस्त साझेदार यूरोपीय देश अब अमेरिका से दूरी बना ले। यह भी हो सकता है कि ईरान, रूस, चीन तथा यूरोप के साथ मिलकर इस डील को आगे बढ़ाएँ। इस स्थिति में वाशिंगटन के विरूद्ध यूरोप, रूस और चीन का एक नया त्रिकोण बन सकता है जिससे नए संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। साथ ही यह माना जा रहा है कि ईरान को अंतर्राष्ट्रीय पेट्रो बाज़ार से बाहर कर देने पर तेल उत्पादन में बड़ी कमी आएगी जिससे खासकर एशियाई देशों में ऊर्जा संकट बढ़ेगा और इन देशों की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी।
अमेरिका के अनुसार भारत, चीन और पाकिस्तान सहित एशिया के देशों द्वारा ईरान के साथ तेल कारोबार को खत्म न करने की स्थिति में इन देशों पर वो आर्थिक प्रतिबंध लगा देगा। अब भारत सहित अन्य एशियाई देशों को यह तय करना है कि उन्हें ईरान से संबंध तोड़ना है या फिर जारी रखना है। हालाँकि, यह किसी संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता का भी प्रश्न है। दूसरी तरफ ईरान हमेशा से भारत के पक्ष में रहा है। जहाँ तक ऊर्जा संकट की बात है तो भारत ईरान से करीब 10-11% तेल खरीदता है। भारत उसी गुणवक्ता का तेल अरब, कुवैत, ओमान, रूस और यहाँ तक कि अमेरिका से भी खरीद सकता है इसलिये एनर्जी सिक्योरिटी पर विशेष असर नहीं पड़ेगा। लेकिन यदि उसका मूल्य अधिक हुआ तो फिर यह चालू खाता घाटा, राजकोषीय घाटा और मुद्रा के मूल्य पर नकारात्मक असर ज़रूर डालेगा जो अंतत: जीडीपी को प्रभावित करेगा। परंतु यदि ईरान का क्रूड ऑयल भारत और चीन सहित एशिया के अन्य देशों को मिलना बंद हो जाएगा तो अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में क्रूड की सप्लाई और खपत के बीच संतुलन बिगड़ जाएगा, हालाँकि ओपेक में उत्पादन बढाने की बात की गई है।
दूसरी तरफ भारत को ईरान की ज़रूरत कनेक्टिविटी के लिहाज से भी अधिक है क्योंकि सेंट्रल एशिया और रूस से संपर्क हेतु भारत के लिये ईरान ज़रूरी रहा है और आगे भी रहेगा। सामरिक नज़रिये से ईरान का चाबहार बंदरगाह पाकिस्तान के ग्वादर या चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ को कांउटर कर सकता है।
निष्कर्ष:
अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-
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