परम्परागत व्यवस्थाओं के नियमों एवं विधिक अधिकारों के मध्य विवाद का मुद्दा नया नहीं है। भारत में महिलाओं के अधिकारों के विभिन्न मुद्दों पर उपस्थित उपरोक्त द्वन्द्व के विषय में चर्चा कीजिये।
उत्तर :
भारतीय समाज में पराम्परागत तौर पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है। सभी सामाजिक व्यवस्थाओं का संचालन करने का अधिकार तथा अन्य विशेषाधिकार पुरूषों को ही प्राप्त हुए हैं जिसके चलते उन सभी सामाजिक व्यवस्थाओं में नियमों का निर्माण भी पुरूषों के हितों को ध्यान में रखकर पुरूषों के पक्ष में किया गया है। पुरूषों और महिलाओं के मध्य की यह असमानता/विषमता ही समय-समय पर विवाद का मुद्दा बनती है क्योंकि जहाँ परम्परागत व्यवस्था महिलाओं की पुरूषों से समानता को नकारती है, वहीं संविधान और कानून न केवल समानता के पक्षधर है बल्कि महिलाओं के उत्थान के लिय अतिरिक्त प्रयास/प्रावधान किये जाने के भी हिमायती हैं।
महिलाओं के अधिकार के संदर्भ में परम्परागत व्यवस्था के नियमों एवं विधिक अधिकारों के मध्य के विवाद को निम्नलिखित मुद्दों में देखा सकता है-
- हाल ही में नगालैंड में 1 फरवरी, 2017 से शहरी स्थानीय निकाय का चुनाव होना था जिसमें पहली बार महिलाओं के लिये 33% सीटें आरक्षित की जानी थी लेकिन नगा जनजाति के प्रतिनिधित्वकारी समूहों ने महिला आरक्षण के प्रावधानों को लेकर इस चुनाव का व्यापक स्तर पर विरोध किया क्योंकि उनका मानना था कि महिला आरक्षण की व्यवस्था नगा समूह की परम्परागत प्रथाओं एवं नियमों के विरूद्ध है और संविधान का अनुच्छेद-371 (A) परम्परागत नगा विधियों को संरक्षण प्रदान करता है। वहीं, आरक्षण के समर्थकों का तर्क है कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और नगालैंड का वर्तमान कानून महिला आरक्षण का समर्थन करता है तथा दूसरा यह कि किसी प्रगतिशील कानून को परम्परा के नाम पर रोकना तार्किक नहीं है।
- भारत की संसद में पिछले 21 सालों से ‘संसद तथा विधानसभाओं में 33% महिला आरक्षण’ से जुड़ा बिल अटका पड़ा है। वर्तमान में 16वीं लोकसभा में भी महिलाओं की भागीदारी महज 11% ही है। पुरुषों की अधिसंख्या वाली संसद यह बिल क्यों पास नहीं कर पा रही; उसे समझना मुश्किल नहीं है।
- हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 पैतृक संपत्ति में लड़की के बराबर हक की बात करती है, परंतु आज भी समाज में लड़की को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जा रहा है।
- मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिये सर्वोच्च न्यायालय मई, 2017 से एक पाँच सदस्यीय न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा ‘तीन-तलाक’ मुद्दे का विश्लेषण कर अपना फैसला देगा। तीन-तलाक प्रथा मुस्लिम समाज में महिलाओं के अधिकारों का दमन करने के लिये पुरुषों के पास सबसे बड़ा साधन बन गया है तथा परम्परागत मुस्लिम समाज इस अतार्किक प्रथा का समर्थन करता है।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में समाज को चाहिये कि वह अतार्किक, गैर-जरूरी और विभेदकारी व्यवस्थाओं को तिलाँजलि दे तथा महिलाओं सहित सभी वर्गों को प्राप्त विधिक अधिकारों का सम्मान करें क्योंकि इन वर्गों के लिये आवश्यक ‘विधिक अधिकार’ भी समाज द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही बनाते हैं।