‘स्थानीय निकायों और सिविल सोसायटी का क्षमता निर्माण एक कारगर साधन है जो जनजातीय समुदायों में व्याप्त असंतोष को कम कर उनमें उग्रवादी विचारधारा पनपने से रोक सकता है।’ समीक्षा करें।
08 Jul, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाजनजातीय समुदायों में व्याप्त गरीबी, बेरोज़गारी, विषमता की समस्या, सामुदायिक सेवाओं की अनुपलब्धता, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, पारंपरिक रीतियों एवं अधिकारों में हस्तक्षेप के कारण इन समुदायों में असंतोष फैला रहा है जो इनमें वामपंथी विचारधारा के प्रसार का कारण बन रहा है।
स्थानीय समुदायों एवं सिविल सोसायटी का क्षमता निर्माण कर जनजातीय अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सकता है। निचले स्तर पर अधिकारियों के अविश्वास और सेवाएँ प्रदान करने में प्रशासनिक प्रणाली की अकर्मण्यता तथा अक्षमता के वातावरण में स्थानीय समस्याओं से निपटने में स्थानीय संस्थाओं की कारगर भूमिका हो सकती है। इस संदर्भ में प्रमुख उदाहरणों का विश्लेषण नीचे प्रस्तुत किया गया है-
(i) पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार अधिनियम, 1996 (PESA Act) के प्रावधानों के अंतर्गत ‘ग्राम सभा’ को गाँव के मामलों के लिये केंद्र बिंदु बनाया गया है। इसके अनुसार जल निकायों, परती भूमियों एवं लघु वनोपजों (जल, जंगल और जमीन) को ग्राम समुदाय की परिसंपत्ति माना गया। विकास योजनाओं के कार्यान्वयन का अनुमोदन ‘ग्राम सभा’ द्वारा किया जाना अनिवार्य किया गया है।
इस कानून में यह समस्या है कि इसके द्वारा निर्धारित किये गए दिशा-निर्देशों का कार्यान्वयन तब संभव होगा जब राज्य सरकार इनके संबंध में अपने कानून के तहत कार्रवाइयाँ प्रारंभ की हैं लेकिन ये कार्यान्वयन अपर्याप्त एवं असंतोषजनक हैं।
(ii) इन क्षेत्रों में विकास के लिये सहकारी संस्थाओं की भागीदारी इतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी ग्राम सभा की। ये स्थानीय समुदायों को संस्थागत ऋण दिलवाने, कृषि आगतों की व्याख्या करने एवं स्वरोज़गार के लिये प्रेरित करने का कार्य करती है।
लेकिन, इन संख्याओं में यथास्थितिवादी एवं अक्रर्मण्य नौकरशाही एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला है जिससे सहकारी समितियाँ अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पा रही हैं। TRIFED जैसे शीर्ष स्तर के संस्थान की जनजातीय क्षेत्रों में सहकारिता को सही मार्गदर्शन तथा नेतृत्व प्रदान करने में असफल रहे हैं। सहकारी समितियों में सामाजिक पूंजी एवं जन भागीदारी को प्रोत्साहन देकर सहकारिता को मजबूत किया जा सकता है।
(iii) गैर-सरकारी संगठन (NGOs) स्थानीय समुदायों को आवश्यक सेवाओं की पूर्ति का कार्य करते हैं तथा सरकार द्वारा सेवा आपूर्ति में रहे अंतराल को भरते हैं। ये सरकार तथा उग्रवादी समूहों के बीच वार्ताकार का कार्य कर सकते हैं तथा स्थानीय जनता को शिक्षित, जागरूक एवं सशक्त बना सकते हैं। इस प्रकार ये कानून-व्यवस्था स्थापित करने एवं जन असंतोष कम करने में सहायक हैं। किंतु, यहाँ एक दूसरा मत भी है जिसके अनुसार कुछ मामलों में NGOs खुद उग्रवादियों के सहायक सिद्ध होते हैं। ये पुलिस उत्पीड़न का हौव्वा बनाकर एवं पुलिस कार्रवाई को मानवाधिकार हनन का मामला घोषित कर उग्रवादियों की विचारधारा को पोषण करते हैं।
निष्कर्षः इस प्रकार, यदि स्थानीय निकायों एवं सिविल सोसायटी को सही दिशा में निर्देशित किया जाए तथा उनकी उपयुक्त मॉनीटरिंग की जाए तो ये जनजातीय क्षेत्रों में रोज़गार, क्षमता निर्माण एवं कौशल विकास को सुनिश्चित कर विकास को बढ़ावा दे सकते हैं एवं विफलता को कम कर सकते हैं। इस प्रकार जनजातियों में व्याप्त असंतोष को कम कर, शासन के प्रति विश्वास पैदा कर उग्रवादी विचारधारा के प्रसार पर अंकुश लगा सकते हैं।