भारतीय संविधान में निहित ‘समानता का अधिकार’ एवं ‘धर्म के स्वतंत्रता का अधिकार’ दोनों मौलिक अधिकार हैं, परंतु ‘सबरीमाला मंदिर प्रवेश निषेध’ एवं अन्य धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश संबंधी विवाद ने दोनों अधिकारों को एक द्वंद्व के बिन्दु पर ला खड़ा किया है, जिससे यह स्पष्ट कर पाना मुश्किल है कि क्या ये एक दूसरे के पूरक हैं या प्रतियोगी? टिप्पणी करें।
12 Oct, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था
उत्तर की रूपरेखा-
|
व्यक्ति के चहुँमुखी विकास (भौतिक, बौद्धिक, नैतिक व आध्यात्मिक) के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु संविधान में ‘भारत के मैग्नाकार्टा’ के रूप में अधिकारों की एक लंबी श्रृंखला प्रस्तुत की गई है। परन्तु हाल ही में सबरीमाला मंदिर प्रवेश निषेध, हाजी अली दरगाह व अन्य धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश संबंधी विवाद मामलों में समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14-18) व धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 25-28) के मध्य एक द्वन्द्व की स्थिति उभरी है। इस द्वंद्वात्मक स्थिति में दोनों अधिकारों की पूरकता व प्रतियोगिता पर तर्क उभर कर सामने आए हैं, जो इस प्रकार हैं-
पूरक कैसे?
अनुच्छेद 25(1) के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है। यह अधिकार समानता के अधिकार से पूरकता रखता है।
प्रतियोगी कैसे?
अनुच्छेद-26(ख) के अनुसार, प्रत्येक धार्मिक संप्रदायों को अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार है। यह अधिकार सबरीमाला के प्रशासनिक बोर्ड को महिलाओं या किसी अन्य के प्रवेश संबंधी निषेध को मान्यता देता है। इस वज़ह से समानता का अधिकार (अनुच्छेद 15) व धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 26) एक दूसरे के प्रतियोगी प्रतीत होते हैं। हालाँकि पूरकता व प्रतियोगिता के विषय पर एक सूक्ष्म विश्लेषण आवश्यक है।
सूक्ष्म विश्लेषण
अनुच्छेद 25(2) राज्य को सार्वजनिक व्यवस्थाओं, नैतिकता से संबंधित मुद्दों पर नियम बनाने का अधिकार देता है। सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिये खोला जा सकता है।
महिलाओं के प्रवेश निषेध को परंपरा (Customs) के आधार पर सही ठहराने वाले त्रावणकोर बोर्ड को सुप्रीम कोर्ट के धर्म संबंधी संवैधानिक अवधारणा पर खरा उतरना होगा। इसके अनुसार कोई भी धार्मिक क्रिया तभी संवैधानिक है जब वह उस धर्म का आवश्यक व अभिन्न अंग हो। अतः यह लिंग के आधार पर विभेद संबंधी अधिकार को बाधित कर संविधान का उल्लंघन करता है।
इस मुद्दे पर एक तर्क त्रावणकोर बोर्ड के प्राइवेट संस्था होने का है। संविधान के अनुसार धर्म के अधिकार व्यक्ति को राज्य के ऊपर मिलते हैं न कि किसी प्राइवेट या कॉर्पोरेट संस्था के विरुद्ध। हालाँकि इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार एक प्राइवेट पार्टी के द्वारा दूसरी प्राइवेट पार्टी के अधिकारों के उल्लंघन के मुद्दे पर राज्य का यह कर्त्तव्य है कि वह अधिकारों को संरक्षित करे।
इस प्रकार, संकीर्ण दृष्टिकोण से देखने पर समानता व धर्म संबंधी अधिकार प्रतियोगी प्रतीत होते हैं, परन्तु गहन विश्लेषण उनकी पूरकता को इंगित करता है। इस प्रकार के निर्णय एक विकसित गतिशील समाज के आधारभूत स्तंभ हैं।