विधानसभा अध्यक्ष को दलीय राजनीति से ऊपर होना चाहिये क्योंकि संविधान ने उसे अधिनिर्णयन कार्य भी सौंपे हैं। अतः न्यायिक सिद्धांत और न्यायपूर्ण व्यवहार उससे न केवल निष्पक्ष होने की अपेक्षा करते हैं बल्कि ऐसी निष्पक्षता दिखनी भी चाहिये। राज्य विधानसभाओं के हालिया मुद्दों के संदर्भ में अध्यक्ष की भूमिका की आलोचनात्मक समीक्षा करें।
24 Oct, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थायद्यपि विधानसभा अध्यक्ष सामान्यतः बहुमत प्राप्त दल का ही व्यक्ति बनता आया है परंतु उससे यह आशा की जाती है कि वह निष्पक्ष होकर कार्य करेगा। हाल ही में अरुणाचल प्रदेश और तमिलनाडु विधानसभाओं में घटित घटनाओं ने विधान सभा अध्यक्ष की भूमिका और निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। हालाँकि ये घटनाएँ कोई नई बात नहीं हैं बल्कि इससे पहले भी ऐसा (1967-प. बंगाल, 1968-पंजाब, 1995-उत्तर प्रदेश) होता आया है, जिससे ऐसा आभास होता है कि विधानसभा अध्यक्ष दलीय राजनीति से अलग नहीं है और इसलिये उनसे निष्पक्षता की आशा करना बेमानी है।
विधानसभा अध्यक्ष सदन का अभिभावक होता है तथा उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह दलीय राजनीति से ऊपर उठकर निष्पक्ष रूप से कार्य करेगा। इसी परिप्रेक्ष्य में उसे कुछ शक्तियाँ दी गई हैं-
हाल में घटित घटनाओं ने यह सिद्ध किया है कि अध्यक्ष निर्वाचन के बाद भी अपने दल से संबंध बनाए रखता है तथा निष्पक्ष कार्य करने की जगह पार्टी कार्यकर्त्ता की तरह कार्य करता है। दल-बदल कानून ने अध्यक्ष की शक्ति को बढ़ा दिया है। किसी सदस्य की निरर्हता संबंधी अंतिम निर्णय अध्यक्ष को करना होता है, ऐसे में अल्पमत सरकारों के संदर्भ में निष्पक्ष निर्णय की संभावना न्यून हो जाती है। इसका उदाहरण उत्तराखंड में हाल में घटित घटना है। अरुणाचल प्रदेश में अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लंबित होने के बावजूद उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण निर्णय ले डाले, जो संवैधानिक मर्यादा का सीधा-सीधा उल्लंघन था। इसी प्रकार, हाल ही में तमिलनाडु विधानसभा में विपक्ष के सभी सदस्यों को सदन से बाहर निकाल दिया गया तथा कुछ समय के लिये उन्हें निलंबित कर दिया गया है। तमिलनाडु विधानसभा अध्यक्ष की यह कार्यवाही सदन में शांति बनाए रखने के नाम पर की गई, परंतु यह एक तर्कहीन निर्णय था।
पूर्व में तथा हाल में घटित घटनाओं ने यद्यपि अध्यक्ष के पद एवं अधिकारों पर प्रश्नचिह्न लगाया है तथापि यह नहीं कहा जा सकता है कि अध्यक्ष के अधिकारों पर रोक लगा देनी चाहिये या उन्हें सीमित कर देना चाहिये बल्कि उस पर कुछ मर्यादाएँ आरोपित करके पद की गरिमा को बनाए रखा जा सकता है।