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प्रश्न :
कई विशेषताओं और महत्त्वों के बावज़ूद संविधान में उल्लिखित मूल कर्त्तव्य आलोचना योग्य हैं। किन आधारों पर इनकी आलोचना की जा सकती है? चर्चा करें।
29 Nov, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
उत्तर की रूपरेखा:
- मूल कर्त्तव्य का संक्षिप्त परिचय दें।
- संक्षेप में ही मूल कर्तव्यों के महत्त्व और विशेताओं को बताएँ।
- आलोचना के कारणों को बताएँ
- सकारात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत करें।
भारत के मूल संविधान में मूल कर्त्तव्यों का प्रावधान नहीं किया गया था। आपातकाल के दौरान नागरिकों में विधि-व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखने और लोकतांत्रिक संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से स्वर्ण सिंह समिति के सिफारिशों के आधार पर सन् 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान में मूल कर्त्तव्यों का प्रावधान किया गया। इसके लिये संविधान में एक नया भाग 4क जोड़ा गया, जिसमें एकमात्र अनुच्छेद 51क के अंतर्गत 10 मूल कर्त्तव्यों का प्रावधान किया गया। उल्लेखनीय है कि 2002 में 86वें संविधान संशोधन के माध्यम से एक अन्य मूल कर्तव्य को जोड़ा गया है।
मूल कर्त्तव्य स्थापित करने का दृष्टिकोण मूल अधिकार जो वस्तुतः राज्य के विरुद्ध नागरिकों को प्रदत्त हैं, को संतुलित करते हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों के लिये सचेतक के रूप में सेवा प्रदान करना है। मूल कर्त्तव्य भारत के नागरिकों में अपनी संस्कृति, राष्ट्र-प्रेम की भावना और समाज को प्रगतिशील बनाने वाले मूल्यों के प्रति उन्मुख और प्रोत्साहित करने में भी मददगार हैं। फिर भी कतिपय कारणों से इनकी आलोचना भी की जाती रही है।
आलोचना के आधार:
अपूर्ण सूची: आलोचकों ने मूल कर्त्तव्यों की सूची को अपूर्ण बताते हुए इसके अंतर्गत मतदान करने, कर अदा करने, परिवार नियोजन जैसे विषयों को शामिल करने की बात कही है।
जटिल व अस्पष्ट भाषा: संविधान और विधि के जानकारों ने मूल कर्तव्यों की में समाहित सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना आदि के संदर्भ में अस्पष्ट, बहुअर्थी और जटिल होने का आरोप लगाया है।
वादयोग्य न होना: नीति निदेशक तत्त्वों की भाँति मूल कर्त्तव्यों प्रकृति भी गैर-न्यायोचित है। इस आधार पर आलोचकों ने इसे महज एक नैतिक आदेश करार दिया है। उल्लेखनीय है कि स्वर्ण सिंह समिति ने मूल कर्तव्यों के पालन न करने पर दण्ड के प्रावधान किये थे।
स्वैच्छिक सहयोग पर आधारित न होना: दरअसल लोकतंत्र की आधारशिला सार्वजनिक भागीदारी है, ऐसे में नागरिकों को उनके कर्त्तव्यों के लिये आज्ञा प्रेषित करना स्वैच्छिक सहयोग और लोगों के विश्वास पर प्रश्न चिन्ह लगाने जैसा है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति संतुष्टि की अवस्था में अपने कर्त्तव्यों का स्वेच्छा से पालन करता है। अतः किसी को कर्तव्यों के प्रति निर्देशित करना यह दर्शाता है कि वह व्यक्ति संतुष्ट नहीं है।
उपर्युक्त आलोचना के बावज़ूद मूल कर्तव्य सामासिक संस्कृति को सुदृढ़ करने, अपने गौरवशाली परंपरा का सम्मान करने, लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास करने के साथ संविधान में निष्ठा रखने के लिये प्रेरित करती है।To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
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