भारतीय संविधान में वर्णित निदेशक तत्त्वों की विशेषताओं को बताएँ। किन आधारों पर इनकी आलोचना की जाती है? चर्चा कीजिये।
उत्तर :
उत्तर की रूपरेखा-
- राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का संक्षिप्त परिचय दें।
- राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों की विशेषताओं को बताएँ।
- आलोचना के आधार बताएँ।।
|
राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का उल्लेख संविधान के भाग 4 के अंतर्गत अनुच्छेद 36 से 51 तक वर्णित है। भारत के संविधान में यह विशेषता आयरलैंड के संविधान से ली गई है। इन्हें समाजवाद, गांधीवाद और उदारवाद से प्रेरित आदर्शों को प्राप्त करने के उद्देश्य से अंगीकार किया गया था।
निदेशक तत्त्वों की विशेषताएँ:
- ये निदेशक तत्त्व सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण हैं।
- यद्यपि ये अपनी प्रकृति में न्यायोचित नहीं हैं, फिर भी ये किसी भी विधि की संवैधानिकता के निर्धारण में मददगार हैं।
- निदेशक तत्त्व राज्य के शासन में मूलभूत हैं। अर्थात् कानून बनाते समय राज्य द्वारा इन्हें लागू करने की अपेक्षा की जाती है।
- ये संविधान के प्रस्तावना में उल्लिखित समानता, स्वतंत्रता और न्याय जैसे आदर्शों को स्थापित करने में भी महत्त्वपूर्ण हैं।
निदेशक तत्त्वों की आलोचना:
- गैर-न्यायोचित चरित्र होने के कारण कोई कानूनी शक्ति नहीं है। ऐसे में ये काल्पनिक प्रतीत होते हैं।
- कई बार ये केंद्र व राज्यों के मध्य संवैधानिक टकराव की स्थिति पैदा कर सकते हैं। उदाहरण के लिये केंद्र सरकार जब किसी राज्य को इन तत्त्वों को लागू करने के लिये कहे और अगर राज्य सरकार द्वारा इन तत्त्वों को लागू नहीं किया जाता है तो वह राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकती है।
- सर आइवर जेनिंग्स ने इन तत्त्वों को तर्कहीन व्यवस्था करार दिया और नियमित प्रतिमान दर्शन का अभाव बताया है।
- कुछ आलोचकों ने इन्हें पारंपरिक भी कहा है क्योंकि ये तत्त्व 19वीं सदी के राजनीतिक दर्शन पर आधारित पर हैं, जो आधुनिक समय के अनुकूल नहीं हैं।
उपर्युक्त कमियों के बावज़ूद ये देश के शासन में मूलभूत हैं। दरअसल इनकी प्रकृति गैर-न्यायोचित इसलिये रखी गई थी क्योंकि देश के पास इन्हें लागू करने के लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं थे। इसके अतिरिक्त ये न्यायालय को विधि के निर्वचन में, लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को संपुष्ट करने में और राज्य प्राधिकारियों को नैतिक मूल्य प्रदान करने में सहायक हैं।