वर्तमान समय में संघर्षों और राजनीति को देखते हुए क्या आपको लगता है कि वाद-विवाद और चर्चाओं से दलितों का सशक्तीकरण संभव है? आलोचनात्मक परीक्षण करें।
उत्तर :
उत्तर की रूपरेखा:
- दलित शब्द की परिभाषा
- वाद-विवाद व चर्चाओं द्वारा दलित सशक्तिकरण के पक्ष में तर्क
- वाद-विवाद व चर्चाओं द्वारा दलित सशक्तिकरण के विपक्ष में तर्क
- निष्कर्ष
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दलित शब्द हज़ारों वर्षों तक अस्पृश्य या अछूत समझी जाने वाली उन तमाम शोषित जातियों के लिये सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता है जो हिंदू धर्म शास्त्रों द्वारा समाज के सबसे निचले पायदान पर स्थित है। संविधान में इन्हें अनुसूचित जाति कहा गया है।
वार्ताओं व वाद-विवाद द्वारा दलितों के सशक्तिकरण के पक्ष अनेक तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं:
- दलित सशक्तीकरण से संबंधित कोई भी राजनीति को तभी व्यवहार में लाया जा सकता है जब इसमें सभी का मत शामिल हो और यह सिर्फ चर्चा करने से ही प्राप्त किया जा सकता है।
- वाद-विवाद और चर्चा करने से अन्य समाज के लोगों की विचारधारा भी दलित समाज के प्रति बदलेगी और दलितों के लिये सकारात्मक वातावरण बनाने का यह एक महत्त्वपूर्ण कदम व प्रयास होगा।
- वार्ताएँ एवं चर्चाओं से दलित समाज के लोगों में जागरूकता लाने में सहायता मिलेगी जिससे वे सरकार द्वारा योजनाओं का लाभ सुगमता से उठा सकेंगे।
- विभिन्न राज्यों, जैसे- गुजरात, महाराष्ट्र में चलाए गए दलित आंदोलन से दलित समाज के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ है। साथ ही संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों की मांग के लिये दलित समाज के लोग आगे आए हैं।
वहीं कुछ लोगों का तर्क है कि वाद-विवाद, वार्ता एवं चर्चाओं द्वारा दलितों का सशक्तीकरण नहीं हो सकता है। जिसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं:
- समाज में भाईचारे के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है तो वह है श्रेणीबद्ध जाति प्रणाली। इसकी जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरे तक समाई हुई हैं।
- आज श्रेणीबद्ध जाति प्रणाली का विकृत रूप लोगों के मन-मस्तिष्क में ऐसे समा चुका है जिसे निकाल पाना अपने आप में चुनौती है।
- आज भी अधिकांश दलित सामाजिक-आर्थिक रूप से काफी पिछड़े हुए हैं। आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े होने की वजह से कहीं-न-कहीं वे अच्छी शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं।
- दलित आरक्षण को उच्च जाति के लोगों द्वारा अब भी उनके हित में बाधा समझा जाता है।
दलित सशक्तीकरण तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि वे बेहतर शिक्षा न प्राप्त कर लें एवं स्वावलंबी न हो जाएँ। हालाँकि सरकार इसके लिये निरंतर प्रयास भी कर रही है, किंतु यह प्रयास तब तक सफल नहीं होगा, जब तक देश में इसे एक सामाजिक आंदोलन की तरह नही चलाया जाएगा।