नैदानिक परीक्षण (Clinical trial) से आप क्या समझते हैं? कुछ रिपोर्ट और सर्वे बताते हैं कि भारत में नैदानिक परीक्षण से संबंधित प्रवृत्तियाँ परेशान करने वाली हैं जो लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने के साथ-साथ परीक्षण की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती हैं। चर्चा करें।
23 Jan, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था
उत्तर की रूपरेखा:
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नैदानिक परीक्षण “अनुसंधान के माध्यम से विकसित नई चिकित्सा पद्धतियाँ, जिनमें टीका, दवा, आहार संबंधी विकल्प, आहार की खुराक, चिकित्सीय उपकरण, जैव चिकित्सा आदि शामिल होते हैं, के सामान्य प्रयोग से पूर्व इनके प्रभाव व कुप्रभावों का अध्ययन करने के लिये किया गया शोध है।” नैदानिक परीक्षण नई पद्धतियों की सुरक्षा व दक्षता के संबंध में बेहतर डाटा प्रदान करता है।
किसी देश या क्षेत्र विशेष में नैदानिक परीक्षण के लिये स्वास्थ्य एजेंसियों तथा अन्य सक्षम एजेंसियों की अनुमति लेना आवश्यक है। ये एजेंसियाँ परीक्षण के जोखिम/लाभ अनुपात का अध्ययन करने के लिये जिम्मेदार होती हैं। चिकित्सीय उत्पाद या पद्धति के प्रकार और उसके विकास के स्तर के अनुरूप ये एजेंसियाँ प्रारंभ में वालंटियर या रोगियों के छोटे-छोटे समूहों पर पायलट प्रयोग के रूप में अध्ययन की अनुमति देती हैं और आगे उत्तरोत्तर बड़े पैमाने पर तुलनात्मक अध्ययन की अनुमति देती हैं।
भारत में नैदानिक परीक्षण से संबंधित स्पष्ट व कारगर नीति के अभाव में कई अनियमितताएँ देखने को मिलती हैं। एक आँकड़े के अनुसार, वर्ष 2005 से 2012 के बीचे पूरे देश में लगभग 2800 लोगों की मृत्यु नैदानिक परीक्षण के कारण हुई। अपनी आय की पूरकता के लिये वालंटियरों की बड़ी संख्या स्वेच्छा से नैदानिक परीक्षणों में भाग लेती है। बेहतर नियामकीय ढाँचे के अभाव में वालंटियरों के स्वास्थ्य से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण आँकड़ों व तथ्यों की उपेक्षा कर दी जाती है, जो न केवल वालंटियरों के स्वास्थ्य को जोखिम में डालती है बल्कि परीक्षण के आँकड़ों पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।
भारत में नैदानिक परीक्षण से संबंधित सबसे बड़ी समस्या नियामकीय विफलता है। दो स्तर पर समस्याएँ देखने को मिलती हैं। पहला, गरीब व जरूरतमंद लोग पैसों के लिये परीक्षण में वालंटियर बनते हैं। यह एक सामान्य-सी बात है जो विश्व के सभी क्षेत्रों में देखने को मिलती है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब बार-बार वालंटियर बनने वाले लोग जाँचकर्त्ताओं से अपनी उम्र, स्वास्थ्य व अन्य उपचारों के संबंध में झूठ बोलते हैं। यह उनके स्वास्थ्य को तो हानि पहुँचाता ही है, साथ ही जाँच के आँकड़ों को भी कुप्रभावित करता है।
दूसरी समस्या अनैतिक नैदानिक परीक्षण से संबंधित है जिसमें नकली दवाओं व उपकरणों की जाँच के लिये दवा कंपनी व डॉक्टरों की मिलीभगत से रोगियों व वालंटियरों से सच्चाई छुपाई जाती है, जिसका कुप्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
कई बार नैदानिक शोध संस्थानों (CROs) द्वारा लोगों की वित्तीय आवश्यकताओं और अज्ञानता का लाभ उठाकर उनका शोषण किया जाता है। इस प्रकार की अनियमितताओं से संबंधित कई उदाहरण हाल के वर्षों में प्रकाश में आए हैं। वर्ष 2009 में एच.पी.वी. टीके के लिये 24000 लड़कियों को नामांकित किया गया था, बाद में जाँच में पता चला कि इनको झूठी जानकारियाँ प्रदान की गई थीं। इस प्रकार की कई अन्य घटनाएँ भी समय-समय पर सामने आती रहती हैं।
इन अनियमितताओं के कारण पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में हुए परीक्षणों की गुणवत्ता व आँकड़ों को कम महत्त्व दिया जाता है। वर्ष 2011 में ‘जर्नल ऑफ क्लिनिकल एपिडेमियोलॉजी’ में प्रकाशित एक अध्ययन में भी इसकी पुष्टि की गई थी।
इन्हीं अनियमितताओं व समस्याओं को देखते हुए आज नैदानिक परीक्षण के संबंध में बेहतर नियामकीय ढाँचे के विकास की अविलंब आवश्यकता है। जिसके अंतर्गत सभी परीक्षणों का अनिवार्य पंजीकरण किया जाना अति आवश्यक है और इसमें सभी वालंटियरों व रोगियों की संपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई जाए। साथ ही, वालंटियरों को भी शोध के संबंध में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हुए उनकी सहमति ली जाए। इस दिशा में रंजीत रॉय चौधरी समिति की सिफारिशें काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती हैं।