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प्रश्न :
सरकारी तथा निजी संस्थानों में नैतिक दुविधाओं को एक कुशल और प्रभावी प्रशासन के मार्ग में एक बड़ा अवरोध समझा जाता है। इसी आलोक में ‘नैतिक दुविधा’ को परिभाषित करते हुए सरकारी संस्थाओं में कार्यरत लोगों के समक्ष प्रायः उपस्थित होने वाली नैतिक दुविधाओं का उल्लेख कीजिये।
05 May, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
प्रायः दुविधा उस स्थिति को कहते हैं जब किसी व्यक्ति के पास दो या अधिक विकल्प हों और विकल्प एक-दूसरे से पूर्णतः अलग हों अर्थात् उन्हें साथ-साथ चुना न जा सकता हो परंतु किसी एक विकल्प को चुनना अनिवार्य हो अर्थात् निर्णय को टाला न जा सकता हो और सारे विकल्प ऐसे हों कि किसी को भी चुनकर पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव न हो। इस प्रकार, एक नैतिक दुविधा के मूल घटक निम्नवत् हैंः
- एकाधिक विकल्पों का होना।
- निश्चितता व स्थिर मस्तिष्क से किसी एक विकल्प को चुनने में असमर्थता।
- विकल्पों में से किसी एक को वरीयता दे पाने में असमर्थता।
- विकल्पों में उचित-अनुचित, सकारात्मक-नकारात्मक मान्यताओं में भेद कर पाने में असमर्थता।
सरकारी संस्थाओं में कार्यरत लोगों के समक्ष प्रायः उपस्थित होने वाली नैतिक दुविधाएँः
- व्यक्तिगत लाभ तथा नैतिकता के मध्य द्वन्द्व की दुविधा में फँसते हुए यह सोचना कि रिश्वत लूँ या न लूँ।
- ऑफिस की किसी संपत्ति का व्यक्तिगत हित में प्रयोग करूँ या न करूँ।
- अगर अपने व्यक्तिगत काम के लिये कार्यालय से बाहर जाना पड़े तो उतने समय का औपचारिक अवकाश लूँ या नहीं।
- भ्रष्ट कर्मचारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करूँ या नहीं क्योंकि यदि वह गरीब है और पारिवारिक जिम्मेदारियों को उठाने वाला अकेला सदस्य है तो उसके परिवार पर बुरा असर पड़ेगा।
- अपने विभाग के मंत्रियों के साथ सकारात्मक संबंध बनाने चाहियें या नहीं।
इस प्रकार की नैतिक दुविधाएँ एक कुशल एवं प्रभावी प्रशासन में अवरोध की तरह प्रस्तुत हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में एक कर्मचारी को विधि, नियमों, विनियमों एवं अंतरात्मा के मार्गदर्शन में अपनी दुविधाओं का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिये।
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