स्वामी विवेकानन्द के चिंतन में दलितों, महिलाओं व गरीबों के उत्थान तथा ‘कर्म की प्रधानता’ का विचार विशेष रूप से उपस्थित रहा। विवेचना कीजिये।
22 May, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नस्वामी विवेकानन्द 19वीं सदी के भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली चिंतकों में से एक थे। वे वेदान्त के व्याख्याता तथा एक उच्च कोटि के आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने हिंदू धर्म तथा अद्वैत वेदान्त की वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या करते हुए भारत में नवजागरण को दिशा प्रदान की। 1893 ई. में शिकागो में आयोजित ‘विश्व धर्म महासभा’ में उन्होंने हिंदू धर्म को सहिष्णु तथा सार्वभौमिक धर्म के रूप में प्रस्तुत किया।
स्वामी विवेकानंद ने भारतीय समाज में दलितों एवं महिलाओं की दयनीय स्थिति की निन्दा की और समाज कल्याण के लिये इनका उत्थान आवश्यक बताया। उन्होंने इनके उत्थान के लिये शिक्षा को सबसे महत्त्वपूर्ण साधन माना। उनका मत था कि जिस राष्ट्र में महिलाओं का सम्मान नहीं होता, वह राष्ट्र और समाज कभी महान नहीं बन सकता। शिक्षा के माध्यम से ही स्त्री व दलितों को शक्तिशाली, भयविहीन तथा आत्म-सम्मान के साथ जीने के काबिल बनाया जा सकता है।
स्वामी विवेकानन्द ने दरिद्र (गरीब) में ही नारायण देखा (दरिद्र नारायण) और उसके कल्याण में ही ईश्वर की सेवा माना है। उस ‘दरिद्र नारायण’ की अवधारणा द्वारा उन्होंने मानवतावाद को धार्मिकता से जोड़ दिया। शिकागो में दिये गए अपने ऐतिहासिक भाषण में भी उन्होंने सार्वभौमिक भ्रातृभाव को सभी धर्मों का सार तत्त्व कहा था।
स्वामी विवेकानन्द सदैव मनुष्य को कर्मशील बने रहने के लिये प्रेरित करते थे। उनका मत था कि प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्म पूरी शक्ति तथा एकाग्रता के साथ करना चाहिये। उनका एक प्रसिद्ध कथन है- ‘प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो, सभी मरेंगे साधु या असाधु, धनी या दरिद्र, चिरकाल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और तब तक रूको नहीं जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए’।
इस प्रकार, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यद्यपि स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के व्याख्याता एवं एक आध्यात्मिक गुरु थे परंतु उनके चिंतन में दलितों, महिलाओं व गरीबों के उत्थान तथा ‘कर्म की प्रधानता’ का विचार विशेष रूप से उपस्थित था।