भारत जैसी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में किसी जाति/समुदाय या किसी वर्ग-विशेष द्वारा अपनी मांगों/अधिकारों के लिये हिंसक विरोध प्रदर्शन कहाँ तक जायज़ है? इस संबंध में अपना मत भी स्पष्ट करें।
10 Jun, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नएक लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली में जनता चुनावों के माध्यम से अपने प्रतिनिधि को चुनकर संसद भेजती है, जहाँ वह कानून का निर्माण करता है। भारत का संविधान भी जन-प्रतिनिधियों ने ही तैयार किया था तथा उसमें सभी समुदायों व वर्गों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिये यथासंभव प्रावधान किये गए। भारत का सर्वोच्च न्यायालय सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है तथा संविधान का संरक्षक भी है। अतः किसी समुदाय विशेष/वर्ग विशेष को उसके अधिकारों से वंचित करना या उनका दमन करना संविधान की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है।
फिर भी बदलते परिदृश्य में आवश्यकताएँ भी बदल जाती हैं। कई बार सरकार किसी वर्ग विशेष या समुदाय की अहम जरूरतों या वंचना को नहीं समझ पाती या कई बार जब सरकार के कुछ निर्णय समाज के एक हिस्से के लिये विभेदकारी हों, तब लोगों को अपना विरोध लोकतांत्रिक तरीके से करने का पूरा अधिकार है। लोग शांतिपूर्वक धरना दें, सामूहिक या व्यक्तिगत उपवास रखें, सत्याग्रही बने, अपने जनप्रतिनिधि द्वारा संसद में अपनी बात/पक्ष रखें या फिर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका डालें; ये सब लोकतंत्र में विरोध/असहमति जताने के मार्ग हैं।
विरोध जताने का सबसे अहम तरीका तो आम चुनाव हैं। यदि जनता को लगता है कि कोई सरकार जन-विरोधी निर्णय लेती है या उनकी मांगों को नहीं सुनती तो चुनावों में सही उम्मीदवारों को चुनकर संसद भेजे। परंतु लोकतंत्र में हिंसक विरोध प्रदर्शन किसी लिहाज से भी जायज़ नहीं है। देश में अराजकता को फैलने से रोकने तथा कानून व्यवस्था कायम रखने के लिये राज्य को हिंसक प्रदर्शन को बलपूर्वक नियंत्रित करना पड़ता है, जिससे अंततः जनता तथा मूलरूप से लोकतंत्र की आत्मा का ही दमन होता है। स्मरण रहे, गांधी जी ने भी चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को वापस इसी तर्क के आधार पर लिया था कि हिंसक विरोध प्रदर्शन अस्थायी होते हैं तथा राज्य को बल प्रयोग करने का अवसर देते हैं।