व्यक्ति अपने परिवार, समाज व शिक्षण संस्थानों में अन्तर्क्रिया के दौरान विभिन्न ‘विषयों’ के प्रति अपनी अभिवृत्तियाँ निर्मित कर लेता है। सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति की इन ‘अभिवृत्तियों’ के संभावित हानिकारक पक्षों का उल्लेख करें।
29 Jun, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न‘अभिवृत्ति’ से तात्पर्य मन की एक अवस्था है, जिसमें किसी मनोवैज्ञानिक विषय के प्रति सकारात्मक, नकारात्मक या तटस्थता का भाव रहता है। व्यक्ति में अभिवृत्तियों का निर्माण जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न सूचनाओं, अनुभवों एवं अवलोकन से होता है। ‘अभिवृत्ति’ सापेक्षतः स्थायी होती है अर्थात् यदि एक मनोवैज्ञानिक विषय के प्रति व्यक्ति में ‘मूल्यांकनपरक भाव’ उत्पन्न हो गया है, तो उसे आसानी से बदलना मुश्किल होता है।
सार्वजनिक जीवन में कई अवसरों पर ऐसे पक्ष उभर का सामने आते हैं, जब किसी ‘विषय’ के प्रति निर्मित अभिवृत्ति की उपस्थिति के चलते लोकहित प्रभावित हुआ है। यथा-
(i) ‘अभिवृत्ति’ के चलते कई बार रूढ़िवादिता को बढ़ावा मिलता है क्योंकि अधिकांश अभिवृत्तियाँ बचपन में ही विकसित होती हैं और उन्हें बदलना काफी कठिन होता है। ऐसे में कई रूढ़ियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती हैं। जैसे- ग्रामीण इलाकों में घूंघट के प्रति स्वीकार्यता की अभिवृत्ति। एक उच्च शिक्षित महिला अधिकारी भी प्रायः इस प्रथा को हतोत्साहित करने की इच्छुक नहीं दिखाई देती।
(ii) अभिवृत्तियों के कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ तथा तटस्थ नहीं रह पाता है। जबकि लोकसेवकों के लिये यह जरूरी है कि उनका दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ व तटस्थ हो। उदाहरण के तौर पर प्रायः यह देखने को मिलता है कि जब भी किन्हीं दो समुदाय के लोगों के मध्य कोई विवाद होता है, तो यदि जाँच अधिकारी उन समुदायों में से किसी एक समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह रखता है, तब वह मूल स्थिति के प्रति अपना दृष्टिकोण तटस्थ व वस्तुनिष्ठ नहीं रख पाता।
(iii) ‘अभिवृत्ति’ से व्यक्ति में लचीलापन कम हो जाता है यानी यदि परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाएँ या बदल जाएँ तो वह खुद को आसानी से समायोजित नहीं कर पाता। जैसे- एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में पले-बढ़े व्यक्ति में ‘मांसाहार’ के प्रति घोर नकारात्मक अभिवृत्ति का विकास हो जाता है; ऐसे में यदि उसे कुछ समय ऐसे क्षेत्र-विशेष या विदेश में रहना पड़े, जहाँ मुख्य भोजन मांसाहार ही हो, तब उसे खुद को ऐसी स्थिति में समायोजित कर पाना मुश्किल हो जाता है।
(iv) समाज के वंचित वर्गों को इसका सबसे ज्यादा नुकसान झेलना पड़ता है। एक तो वे पहले ही वंचित हैं तथा उच्च वर्ग या शोषक वर्ग की अभिवृत्तियाँ उनके विचारों को या व्यवहारों को बदलने नहीं देतीं। दलितों, महिलाओं, अश्वेतों, विकलांगों, अल्पसंख्यकों के शोषण की बड़ी वजह प्रभुत्वशाली समूहों में उनके प्रति नकारात्मक अभिवृत्तियों का होना तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका संचारित होना है।