हृदय परिवर्तन की अवधारणा क्या है? महात्मा गांधी उसे किस आधार पर स्वीकार करते हैं? व्यावहारिक जीवन में उसका क्या औचित्य है?
01 Aug, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नहृदय परिवर्तन गांधी जी की नीति मीमांसा से संबंधित एक प्रमुख सिद्धांत है। इसके अंतर्गत गांधी जी ने मार्क्स के विपरीत यह माना है कि बिना भौतिक परिस्थितियों के बदले मनुष्य के विचार को बदला जा सकता है, बशर्ते कि उपयुक्त परिस्थितियाँ मौजूद हों।
गांधी जी का यह सिद्धांत उनकी नव्य वेदांत की तत्त्वमीमांसा प्रत्ययवाद से जुड़ा हुआ है। उल्लेखनीय है कि प्रत्ययवाद के अनुसार मूल सत्ता चेतना या विचारों की होती है और उसी से भौतिक स्थितियों का निर्धारण होता है। इसका अर्थ है किसी व्यक्ति में चेतना या विचार में परिवर्तन होने से उसकी भौतिक परिस्थितियाँ बदल सकती हैं। इसके अतिरिक्त नव्य वेदांत के ‘ईशावास्यमिदं सर्वं’ (सब कुछ ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है) का प्रभाव भी इस धारणा पर दिखाई पड़ता है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर का अंश निहित है, यदि कोई व्यक्ति क्रूर या अत्याचारी है तो इसका कारण यह है कि उसके भीतर का ईश्वरत्व दबा हुआ है। अगर उसे उचित प्रेरणा और परिस्थितियाँ मिले तो वह भी समाज के लिये सकारात्मक योगदान कर सकता है।
हृदय परिवर्तन के व्यावहारिक औचित्य को कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है, यथा: विनोबा भावे का ‘भूदान’ एवं ‘ग्राम दान’ जैसे आंदोलनों में हृदय परिवर्तन का प्रयोग किया गया था। जय प्रकाश नारायण ने भी इसी के माध्यम से बहुत से डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिये प्रेरित किया। वर्तमान में भी नक्सलवादियों द्वारा किये जा रहे आत्मसमर्पण को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है। किंतु हृदय परिवर्तन सभी परिस्थितियों में सफल हो आवश्यक नहीं। इसीलिये अम्बेडकर ने इस पर आक्षेप लगाया कि जब महात्मा गांधी जैसा आदमी दलितों व महिलाओं की समस्या का समाधान करने हेतु सवर्ण हिन्दुओं का हृदय परिवर्तन नहीं करा पाया तो कौन करा पाएगा।
फिर भी यह पूर्णतः अव्यावहारिक नहीं है। गहरे स्वार्थ को छोड़कर सामान्य नैतिक प्रसंगों में इसकी व्यापक भूमिका होती है।