आप एक निजी अस्पताल में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। आपके अस्पताल में लगभग 1 वर्ष के बच्चे को दो माह पहले भर्ती कराया गया है। वह बच्चा जन्म से एक असाध्य रोग माइटोकॉण्ड्रियल डिसआर्डर से पीड़ित है जिससे उसका मस्तिष्क व मांसपेशियाँ गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो रही हैं। आप जानते हैं कि इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है और आपके अस्पताल में उसे विगत दो माह से लाइफ सपोर्ट पर रखा गया है। अब बच्चे के अभिभावक उसे विदेश के अस्पताल में भर्ती कराना चाहते हैं जहाँ उसका प्रायोगिक उपचार किया जाना है। प्रायोगिक उपचार में उसे अधिकतम 10 प्रतिशत लाभ की संभावना है, लेकिन आपके अस्पताल के चिकित्सक उसे कष्टमय उपचार के बदले गरिमापूर्ण मृत्यु प्रदान करना चाहते हैं। 1. उपर्युक्त प्रकरण में अंतर्निहित नैतिक मुद्दों को स्पष्ट कीजिये। 2. अस्पताल निदेशक के रूप में आप उपर्युक्त प्रकरण में कौन-से कदम उठाएंगे?
उत्तर :
(1) उपर्युक्त प्रकरण में निम्नलिखित नैतिक विषय शामिल हैं:
- सर्वप्रथम यह मानवाधिकार से संबंधित सबसे मुख्य विषय ‘जीवन के अधिकार’ से संबंधित है। यदि इलाज के अभाव में बच्चे की मौत हो जाती है तो यहाँ जीवन के अधिकार का हनन होगा।
- यह मुद्दा ‘चिकित्सकीय नैतिकता’ से जुड़ा है इसके अंतर्गत मरीज़ के जीवन को बचाने के लिये हर संभव कोशिश की जाती है। यदि किसी कारण से इलाज को रोक दिया जाए तो ऐसे में ‘डॉक्टर्स ओथ’ पर प्रश्न चिह्न खड़ा होता है।
- सभी व्यक्ति को जीवन के अधिकार के साथ गरिमापूर्ण तरीके से मरने का भी अधिकार होता है यदि चिकित्सकों द्वारा उसे अल्पकालिक रूप से जीवित रखने के लिये या प्रायोगिक उपचार के लिये कष्टमय इलाज की प्रक्रिया को अपनाया जाता है तो बच्चे की गरिमापूर्ण मृत्यु प्रभावित होगी।
- प्रत्येक माता-पिता का यह कर्त्तव्य होता है कि वह संतान के जीवन को बचाने का हर संभव प्रयास करें, किंतु अस्पताल के चिकित्सकों द्वारा निश्चित उपचार के अभाव में उसके अभिभावकों को अन्य जगह ले जाने के लिये रोकने से माता-पिता के कर्त्तव्यों का उल्लंघन होगा।
(2) अस्पताल निदेशक के रूप में उपर्युक्त प्रकरण में उठाए जाने वाले कदम:
- अस्पताल के निदेशक के रूप मैं सर्वप्रथम चिकित्सकीय नैतिकता को वरीयता दूंगा और अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर बच्चे के जीवन को बचाने की पूरी कोशिश करूँगा।
- चूँकि बच्चा असाध्य रोग से पीड़ित है और यह भी पता है कि इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है, ऐसी स्थिति में ‘हिपोक्रेटिक ओथ’ का सहारा लेकर बच्चे के अभिभावक को यह समझाने का प्रयास करूँगा कि चिकित्सक द्वारा पूरी कोशिश की जा रही है लेकिन उसे बाहर ले जाने के क्रम में उसे काफी तकलीफों का सामना करना पड़ेगा।
- साथ ही यह मुद्दा माता-पिता के कर्त्तव्यों के अतिरिक्त व्यक्ति की गरिमापूर्ण जीवन से जुड़ा है अतः माता-पिता द्वारा प्रायोगिक उपचार के लिये विदेश ले जाने हेतु अड़े रहने पर अंतिम विकल्प के रूप में मानवाधिकार विशेषज्ञों या न्यायालय का सहारा लूँगा और उनके आदेशों का पालन करूँगा।
उपर्युक्त प्रकरण में ‘चिकित्सकीय नैतिकता’ और ‘मानवीय गरिमा’ के बीच द्वंद्व दिखाई पड़ता है, साथ ही माता-पिता को बच्चे के प्रति उनके कर्त्तव्यों के निर्वहन करने से रोकना भी एक जटिल प्रश्न है। किंतु न्यायालय या मानवाधिकार विशेषज्ञों की राय से परिस्थिति का समाधान हो सकता है।