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प्रश्न :
अपरिग्रह से क्या अभिप्राय है ? इस नैतिक मूल्य का पालन करने वाले व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए समझाएं कि कैसे अपरिग्रह समाज में समानता की स्थापना करने और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति की रोकथाम में सहायक है?
25 Aug, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
अपरिग्रह का अर्थ है- आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करने की प्रवृत्ति। जैन धर्म के पाँच महाव्रतों में अपरिग्रह भी शामिल है। पतंजलि ने भी योग के प्रथम अंग यम के पांचवे अवयव के रूप में अपरिग्रह का महत्त्व बतलाया है। किसी विचार, व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति का न होना ही अपरिग्रह है। इतिहास और वर्तमान में कुछ ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने अपरिग्रह की प्रवृत्ति को अपने जीवन का अभिन्न अंग माना, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
- महावीर एवं बुद्ध - जैन धर्म में त्याग का बड़ा महत्त्व है। गृह-परिवार, वस्तुएँ और वस्त्र त्याग कर दिगंबरत्व (दिशाओं को ही अपना वस्त्र मानना) धारण करने वाले महावीर के अनुसार आकांक्षाओं के वशीभूत होकर व्यक्ति अर्थ का अनर्थ कर बैठता है। परिग्रह या संचय करने की प्रवृत्ति मनुष्य को भ्रष्ट बनाती है। भगवान बुद्ध ने भी मनुष्य की तृष्णा को ही दु:खों का मूल कारण बताया है।
- औरंगज़ेब- औरंगज़ेब की छवि वैसे तो धार्मिक कट्टर शासक की है, परंतु कहा जाता है कि एक सुल्तान होते हुए भी अपनी निजी ज़रूरतों के लिये खज़ाने से धन लेने की बजाए वह कुरान की आयतों की नकल कर व टोपी सिलकर अपना खर्च चलाया करता था। उसने अपनी कब्र को बिना सजावट फकीरों की कब्रों के बीच स्थापित करने का आदेश दिया था। शायद इसलिये इतिहास में उसे जिंदा पीर के नाम से भी जाना जाता है।
- महात्मा गाँधी- इंग्लैंड से वकालत की शिक्षा प्राप्त गांधी जी चाहते तो एक आरामदायक जीवन गुज़ार सकते थे, लेकिन अपरिग्रह रूपी मूल्य उनके जीवन में इतना गहरा समाया था कि न्यूनतम आवश्यकताएँ रखते हुए बिना निजी संपत्ति संचय किये वे देश की सेवा में आजीवन लगे रहे।
- अब्दुल कलाम- कहते हैं कि भारत के पूर्व-राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम जब अपने कार्यकाल की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति भवन से निकले तो उनके पास कपड़ों और निजी सामान के वही दो बैग थे जो वे राष्ट्रपति बनने के बाद लेकर आये थे। उन्हें चल-अचल या मौद्रिक संपत्ति के संचय में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
अपरिग्रह से संबंधित निम्नलिखित तर्क उसे ऐसे मूल्य के रूप में स्थापित करते हैं, जो समाज में समानता की स्थापना और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति में रोकथाम के लिये सहायक है-
- यदि प्रत्येक व्यक्ति उतना ही रखे, जितनी उसकी वास्तविक आवश्यकता है, तो कोई भी अभावग्रस्त नहीं रहेगा और सभी संतुष्टि पूर्ण जीवन जी सकेंगे। ऐसा करके धीरे-धीरे समाज में आर्थिक समानता की स्थापना संभव है।
- भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, आसक्तिपूर्ण व्यवहार का प्रमुख कारण संचय करने की प्रवृत्ति है।
- आवश्यकता की परिभाषा अलग-अलग व्यक्तियों के संदर्भ में अलग-अलग हो सकती है, अर्थात् जो भी अपनी आवश्यकता से अधिक संचय करेगा, वह दूसरे का अधिकार छीनकर ही वैसा करेगा। इस प्रकार परिग्रह की प्रवृत्ति समाज में असंतुलन पैदा करती है।
- देश में अभाव के मूल में ही कहीं न कहीं देश के अन्य लोगों की परिग्रह की प्रवृत्ति ही है। उदाहरण के लिये निवेश के नाम पर भारत में संपन्न लोग आवश्यकता से अधिक घर खरीदकर अनजाने में घरों की मांग बढ़ा देते हैं जिससे उनकी कीमत भी बढ़ जाती है और मध्यम या कम आय वाले लोग एक निजी घर भी नहीं खरीद पाते।
प्रशासन और समाज में फैला भ्रष्टाचार लोगों की संचयी प्रवृत्ति का ही नतीज़ा है। वास्तविक ज़रुरत से अधिक वाहनों, घरों और संपत्ति के अर्जन करने की दौड़ ने ही व्यक्ति के नैतिक बल को क्षीण कर दिया है। इन सबसे छुटकारा पाने के लिये व्यक्ति को अपने जीवन में अपरिग्रह के मूल्य का समावेश करना चाहिये। तभी एक भ्रष्टाचार रहित और समतापूर्ण समाज की स्थापना हो पाएगी।
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