निम्नलिखित के बीच विभेद करें। (i)अंतःकरण एवं इच्छा शक्ति (ii) आचार संहिता और आचरण संहिता (iii) दृढ़ता और धारण (Perseverance and Persuasion) (iv) नैतिक दुविधा एवं नैतिक चिंता
11 Oct, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नi) अंतःकरण एवं इच्छा शक्ति
अंतःकरण को व्यक्ति के गलत और सही के नैतिक भाव के रूप में देखा जाता है। उचित-अनुचित के मध्य विभेद की नैतिक शक्ति जो व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करती है या दिशा देती है, उसे अंतःकरण के रूप में देखा जाता है।
बटलर के अनुसार, अंतःकरण के दो पक्ष हैं- ज्ञानात्मक पक्ष, जो बताता है कि किसी विशिष्ट स्थिति में कौन-सा नियम या कर्म नैतिक है और कौन- सा अनैतिक है तथा अधिकारात्मक पक्ष जो व्यक्ति पर दबाव बनाता है कि वह अंतःकरण के निर्णय को स्वीकारे और उसी के अनुरूप आचरण करे।
‘इच्छा शक्ति’ से तात्पर्य व्यक्ति की मानसिक शक्ति से है जिसके बल पर वह अपनी अंतरात्मा के निर्णयों एवं नैतिक फैसलों को दृढ़ता से लागू करने की कोशिश करता है। प्रायः मज़बूत इच्छा शक्ति के अभाव में अंतःकरण की आवाज़ दबकर रह जाती है।
(ii) आचार संहिता और आचरण संहिता
आचार संहिता और आचरण संहिता दोनों का संबंध प्रशासन एवं प्रबंधन में नैतिकता की स्थापना से है। व्यावहारिक तौर पर इन्हें पूर्णतः अलग करना संभव नहीं है किंतु सैद्धांतिक तौर पर इनमें अंतर किया जा सकता है।
इन दोनों में आचार संहिता मूल आधार है, जिसमें कुछ नैतिक मूल्यों को शामिल किया जाता है, जबकि आचरण संहिता आचार संहिता पर आधारित एक दस्तावेज़ होता है जो निश्चित कार्यों या आचरणों के बारे में स्पष्ट करता है कि वे किये जाने चाहिये या नहीं।
(iii) दृढ़ता और धारण
‘दृढ़ता का अर्थ है- किसी दूरगामी तथा कठिन उद्देश्य की प्राप्ति होने तक धैर्य और आंतरिक प्रेरणा बनाए रखना। बीच-बीच में आने वाली चुनौतियों तथा बाधाओं से हतोत्साहित करने वाली परिस्थितियों से अपनी आशावादी मानसिकता के साथ संघर्ष करते रहना।
‘धारण’ या ‘अनुनयन’ एक विशेष प्रकार का संप्रेषण या अभिव्यक्ति है जिसका प्रयोग किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की अभिवृत्ति परिवर्तित करने के लिये किया जाता है। यह उद्देश्यपूर्ण होता है।
(iv) नैतिक दुविधा एवं नैतिक चिंता
नैतिक दुविधा सामान्यतः उस स्थिति को कहते हैं जब किसी व्यक्ति के पास दो या दो से अधिक विकल्प हों और किसी एक विकल्प को चुनना अनिवार्य हो (निर्णय को टाला न जा सकता हो), परंतु वे सभी विकल्प अलग-अलग नैतिक मूल्यों पर आधारित हों तथा विकल्प ऐसे हों कि किसी भी एक को चुनकर पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव न हो।
जबकि ऐसा कोई कार्य या स्थिति जिसमें किसी नैतिक पक्ष का उल्लंघन हुआ हो या होने की संभावना हो, बेशक अभी कर्त्ता के मन में नैतिक दुविधा उत्पन्न न हुई हो या वह स्थिति उस कर्मचारी या संगठन के लिये कुछ अन्य लाभ ही क्यों न पैदा करती हो, नैतिक चिंता कहलाती है।