किन परिस्थितियों में एक देश की सरकार को अन्य देश के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी चाहिये? क्या ऐसी कार्यवाही किसी भी दशा में नैतिक ठहराई जा सकती है?
19 Mar, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नयुद्ध मूलतः एक अनैतिक कार्रवाई है, क्योंकि इससे बहुत से निर्दोष लोगों का जीवन खत्म होता है। युद्ध कितना अनैतिक है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि परिस्थितियाँ कितनी गंभीर थी?
सबसे कम अनैतिक युद्ध जिसे कुछ लोग नैतिक भी कह सकते हैं, निम्नांकित स्थितियों में ही हो सकते हैं-
यदि युद्ध के बिना इस देश का अस्तित्व ही खतरे में हो, जैसे- अगर किसी देश के पास जल का एक ही स्रोत नदी है जो दूसरे देश से आती है और दूसरा देश उसे रोक दे और अंतर्राष्ट्रीय दबाव व सद्भाव की नीति के तहत सभी उपाय विफल हो जाए और युद्ध अंतिम विकल्प बचे तो यहाँ युद्ध अनैतिक होने के बावजूद भी नैतिक माना जा सकता है, क्योंकि यहाँ अनैतिक शुभ, नैतिक शुभ से अधिक है।
अगर दूसरे देश ने युद्ध जैसी परिस्थिति बना दी हो और युद्ध घोषित किये बिना अपने नागरिकों को बचाना संभव नहीं रह गया हो, जैसे- कोई देश दूसरे देश में आतंकवादियों को भेजे और हजारों निर्दोष लोग काल की गाल में समा रहे हों तथा वह देश अपनी जिम्मेदारी लेने के बजाय ऐसी कार्रवाई को लगातार प्रोत्साहित करे, तो ऐसी स्थिति में युद्ध अंतिम विकल्प बचता है।
यदि कोई देश अपनी विस्तारवादी नीति के तहत युद्ध छेड़ दे और राज्य का अस्तित्व ही खतरे में हो तो प्रतिरक्षा में युद्ध की घोषणा की जा सकती है।
एक और स्थिति भी बन सकती है, जिसमें वैश्विक आतंकवाद का अंग होने के कारण यदि हम शांति वाहिनी सेनाओं के माध्यम से किसी अन्य देश के आतंकवाद को खत्म करने के लिये उस देश पर मानवता और मानवाधिकारों के नाते मिलकर हमला करें, वह नैतिक दृष्टि से उचित माना जा सकता है, इत्यादि।
निष्कर्ष रूप में किसी स्थिति में हम यह अवश्य देखें कि युद्ध में होने वाला नैतिक अशुभ युद्ध के बिना हो रहे नैतिक अशुभ से कम है या अधिक। अर्थात् जब परिस्थितियाँ पूर्णतया प्रतिकूल हों और अंतिम विकल्प युद्ध ही बचा हो तभी युद्ध करना चाहिये। यह युद्ध धर्म (मानवता) की रक्षा के लिये हो सकता है, जैसा कि गीता में कहा गया है। साथ ही यदि हम इतिहास को देखें तो सम्राट अशोक ने भी अपनी ‘धम्म’ की नीति के तहत सेना खत्म नहीं की थी।
गांधीजी ने और संविधान में भी कहीं यह नहीं कहा गया कि सेना नहीं रखनी है, बस सेना को आक्रामकता की बजाय प्रतिरक्षा की ओर ध्यान देना है। इसलिये भारतीय सेना सामान्य परिस्थितियों में बाढ़, सूखे आदि जैसे लोक-कल्याणकारी कार्य करती है, किंतु प्रतिकूल होने या अन्य देशों के द्वारा युद्ध की घोषणा पर (जैसे–1962, 1965, 1971 और कारगिल युद्ध के अंदर हुआ) प्रतिरक्षा के लिये युद्ध करती हैं।