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प्रश्न :
'हमें ईमानदारी से यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिये कि हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष है।' इस कथन के संदर्भ में महावीर के स्यादवाद के सिद्धांत का विश्लेषण करें तथा वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करें।
07 Jun, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
प्रश्न-विच्छेद
- महावीर के स्यादवाद के सिद्धांत का विश्लेषण करना है।
- वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करनी है।
हल करने का दृष्टिकोण
- प्रभावी भूमिका लिखते हुए प्रश्नगत कथन के संदर्भ में स्यादवाद के सिद्धांत को संक्षेप में बताएँ।
- तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु में सिद्धांत का विश्लेषण करें तथा वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता को बताएँ।
- प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें।
जैन धर्म में स्यादवाद का सिद्धांत महावीर का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है जिसका अर्थ है हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष है तथा हमें ईमानदारी से इसे स्वीकार करते हुए अपने ज्ञान के असीमित और अप्रश्नेय होने के निरर्थक दावों से बचना चाहिये।
वस्तुतः ‘स्यादवाद’ मूलतः ‘स्यात्’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ‘संभवतः’ या ‘हो सकता है’। किंतु महावीर ने इस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया है वह ‘सापेक्षतः’ है। सापेक्ष वह अवधारणा है जिसका अर्थ ‘वह, जो किसी से प्रभावित है’ से लिया जाता है; वहीं इसके विपरीत ‘निरपेक्ष’ का अर्थ , ‘वह, जो किसी से प्रभावित नहीं है’, से लिया जाता है। महावीर का स्यादवाद का सिद्धांत ज्ञान को सापेक्ष मानता है, अर्थात् हमारे पास जो ज्ञान है वह निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। यदि हम ऐसे ज्ञान का दावा करते हैं जिसके हर स्थिति में सही होने की गारंटी है तो हम अपने निरपेक्ष ज्ञान का दावा करते हैं और अगर यह मान लेते हैं कि हमारा ज्ञान विशेष परिस्थितियों के अनुसार ही सत्य है और स्थितियाँ बदलने पर यह गलत साबित हो सकता है तो हम ज्ञान की सापेक्षता स्वीकार करते हैं।
साधारण मनुष्यों में संपूर्ण वास्तविकता को पहचानने की शक्ति नहीं होती। वे यह समझ ही नहीं पाते कि उनकी बातों में कोई सार है भी कि नहीं और इसी भ्रम में फँसकर अपने सीमित ज्ञान को ही पूर्ण निरपेक्ष ज्ञान की तरह प्रस्तुत करते हैं जो कि हास्यास्पद होता है। उदाहरणार्थ, जब कोई ईश्वरवादी बिना किसी प्रमाण या तथ्य के ईश्वर के होने की गारंटी देता है तो वह अपने सापेक्ष ज्ञान या समझ को निरपेक्ष मानने की भूल करता है। इसी प्रकार, जब कोई निरीश्वरवादी इस बात का दावा करता है कि ईश्वर नहीं है और यह जगत किसी संयोग से विकसित हुआ है तो भी वह अपनी सापेक्ष समझ को निरपेक्ष मानकर दूसरों पर थोपने का हास्यास्पद प्रयास करता है।
इस संबंध में महावीर सुझाते हैं कि मनुष्य को अपने हर दावे से पहले यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि उसकी बात सापेक्ष रूप में सही है। सरलतम शब्दों में व्यक्ति को अपनी राय देते हुए कुछ सापेक्षता सूचक वाक्यांशों जैसे ‘जहाँ तक मैं समझता हूँ’, ‘मेरा मानना है’, ‘मेरे ख्याल से’, ‘जितनी जानकारी मेरे पास है उसके अनुसार’ आदि का प्रयोग करते रहना चाहिये। ऐसी भाषा से विनम्रता तो झलकती ही है, साथ ही यह खतरा भी नहीं रहता कि व्यक्ति की बात गलत साबित होगी।
महावीर का स्यादवाद का सिद्धांत वर्तमान के लिये ज़रूरी है। आज दुनिया के तमाम विवाद, जैसे— सांप्रदायिकता, आतंकवाद, नस्लवाद, नक्सलवाद, जातिवाद आदि के पीछे मूल बुनियादी समस्या यही है कि कोई भी व्यक्ति, देश या संस्था अपने दृष्टिकोण से जरा भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। सभी को लगता है कि अंतिम सत्य उन्हीं के पास है, दूसरे के पक्ष को सुनने और समझने का धैर्य किसी के पास नहीं है और वे अपने निरपेक्ष ज्ञान के झूठे दावों के चलते दूसरे की जान लेने से भी नहीं कतराते। इस दृष्टि से चाहे इस्लामिक स्टेट जैसा अतिवादी समूह हो या किसी भी विचारधारा को कट्टर रूप में मानने वाला कोई अन्य समूह, सभी के साथ मूल समस्या नज़रिये की है।
स्यादवाद को स्वीकार करते ही हमारा नैतिक दृष्टिकोण बेहतर हो जाता है तथा यह मान लेते हैं कि हम न तो पूरी तरह से सही हैं और न ही दूसरे पूरी तरह से गलत। हम उनके विचारों को स्वीकार करने लगते हैं, फलस्वरूप दो विरोधी समूहों के बीच सार्थक संवाद की गुंजाइश बन जाती है।
अतः स्पष्ट है कि महावीर का स्यादवाद का सिद्धांत नैतिक जीवन के लिये व्यावहारिक है और वर्तमान के लिये प्रासंगिक भी।
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